Friday 27 April 2012

स्वप्न मेरे…


स्वप्न मेरे !
अब खोलो पलकें
करनी है मुझको
कुछ बातें तुमसे……

कुछ बिखरे बिखरे हैं
आज न जाने क्यों
शब्द सारे के सारे
सहेज दो इनको
संवार दो मुझको भी…

मैं गुंथी रही तुम संग
खेल खिलौनों जैसे
कभी तो टांककर तुमको
किसी पतंग में ,
काट दी डोर उसकी
उडा दिया ऊपर
छोड दिया स्वछंद
कि छू सको आसमान…

कभी किसी पंछी के
परों पर बिठलाया
तुमको ,और
देखती रही उडते
क्षितिज तक मस्ती में…
  
तुम तो जुडे हो
मन प्राण से मेरे
गढा है तुमने
मेरी उम्मीदों को
अवलम्ब बने मेरी उमंगों के
तुम्हें बुनते हुए
हर पल
खूबसूरत लगी दुनिया
मनहर लगे नजारे मुझे……

देखो !
हारने नहीं देना
बिखरने नहीं देना
मेरे जज्बातों को…
जगमगाते रहो तुम ,
मैंने चाहा हरदम
तुम भी रखना ख्याल मेरा…
स्वप्न मेरे !
तुम पूरे हो कि अधूरे
समाहित हो मेरी अंतरात्मा में
जागो !
खोलो उनींदी पलकें
करनी है मुझको
कुछ बातें तुमसे……।

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