Saturday 28 April 2012

इतने दिन


तुम उत्तर से आये
मैं दक्खिन से
धीरे धीरे चलते.......
निगाहों का मिलना तय हो जैसे
मिलीं और बस उतर गयीं
दिल की तहों में.......
कितने परिचित लगे तुम
कब की जान पहचान हो
जैसे.......
सामने लहराता समंदर था
पाँव तले ठंढी रेती
आसमान में उतरती शाम की आभा
शनै: शनै: ढलती रात
..........

कहाँ देखा है
कुछ याद नहीं....
पर देखा है...
वही स्नेहिल नजरें
मैंने हाथ बढाया और..
एक पल की भी देर नहीं की तुमने
थाम लिया बढकर
मैं तो लुट गई उसी पल
कैसी तो तासीर थी.तुम्हारे स्पर्श की......
और फिर चल दिए हम तुम
लहरों की तरफ
आहिस्ते आहिस्ते...
लहरों ने भी बडी नरमी से छुआ
हमारे पाँवों को...
कोई तरंग सी आई और
समा गई तन बदन में
याद है न तुम्हें...?

ज्यों ज्यों हम बढ्ते गए
कुछ जादू सा छाता गया
जेहन पर...
अनबूझ नशा सा हावी था
न तुमने कुछ कहा न मैंने
पर चलते गए हम साथ साथ
समंदर ने भी हमारा स्वागत किया
शीतल जल से पाँव धोये हमारे
कितना सुकून
कितनी मिठास सी भर गई थी.
मन प्राणों में...

चलते चलते जब पानी घुटनों तक आया
तुमने मेरी तरफ देखा
क्या क्या नहीं दिखा मुझे
तुम्हारी उस निगाह में...
एक आश्वासन
एक सहारा...
कि थाम लोगे ,अगर डगमगा गए
कदम मेरे.....
और यकीन मानो
मैं भी इत्मीनान हो उठी
चलती चली गई तुम्हारे साथ साथ
लहरों में........

शाम गहरा गई थी..
शीतल हवा अजब सिहरन लिए
छू रही थी बदन को
और मन का पंछी
आजाद उडान भरता
जाने किस दुनिया में मस्त मगन
मंडरा रहा था...
कि तभी मेरे पाँव डगमगाए
तेज लहरों की शरारत होगी
कुछ याद नहीं...
बस याद है तुम्हारी बाँहों का
मजबूत बंधन....
गरम सांसों की छुअन
और धडकते दिल की धडकन
बहुत पास अपने दिल के

मैंने सर छुपा लिया
तुम्हारे सीने में और
महसूस करती रही प्यास जन्मों की
न जाने कहाँ कैद थी.
इतने दिन....
और अब जब उन यादों के
घेरे से सप्रयास तनिक
निकली हूँ तो फिर
वही सवाल है ओठों पर
कि कहाँ थे तुम
इतने दिन..???

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