Monday 30 April 2012

तीन दिन


ढेर से बादल थे आसमान में
चाँद उनमें लुकता छिपता
चला जा रहा था
जब निकलता
खिलखिलाता हुआ सा लगता
बहुत ही चमकीला
सौंदर्य से भरा
तुम मेरे पास थे
हम घंटों निहारते रहे
और डूबते उतराते रहे
अनगिनत सुनहरे ख्वाबों के
जवार भाटों में....
ऐसा होता है अक्सर
जब तुम साथ होते हो
तो हर नजारा
अत्यधिक खूबसूरत लगता
सब कुछ सुंदर ,
मन भावन
और जब अकेली होती हूं
वही सब कुछ देखने का भी
मन नहीं होता
दीखता भी नहीं
कहाँ तो चांद
कौन सा चांद
कैसी खुशनुमा रात
और कैसी तो चांदनी
सब बेमानी
खोया खोया सा मन
और धुंधले नजारे...
तुमने कहा था पहुंचते ही
खत लिखोगे....
तीन दिन लगते हैं यहां तक
खत के पहुंचने में ,
और पहले ही दिन से मैंने
शुरु कर दिया है इंतजार
एक एक पल काटती हूं बेसब्री से
जानती हूं जब रुकेगा डाकिया
मेरे द्वार पर
कहेगा नहीं कुछ
पर मुस्कुराएगा और देखेगा
बेताबी से खत खोलते हुए मुझे
इस बात से बेखबर कि....
कोई देख रहा
मैं पढने लगूँगी एक एक शब्द
जल्दी जल्दी.....
तुम क्या जानो
इंतजार के ये तीन दिन
मेरे लिए क्या हैं
वक्त जैसे बीतता ही नहीं
घडी की सुई भूल जाती है
आगे खिसकना....

चांद फिर निकलेगा
बादल भी होंगे
वह खेलेगा लुका छिपी के खेल फिर
करेगा अठखेलियां भी
अभी अपने हिस्से मीठी कसक भरा
इंतजार है....
और इंतजार का अपना
अलग आनन्द है.....

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