Saturday, 29 October 2011

फ़िर मैं कहां अकेली हूं


कभी कभी ऐसा लगता है
कि मैं बहुत अकेली हूं
और कभी ऐसा लगता है
जैसे एक पहेली हूं
मन के सातों द्वार खोलकर
जब भीतर पग धरती हूं
उस चित्रकार के चित्रों को
जब सांगोपांग निरखती हूं
रंग भरी यह अद्भुत दुनिया
अचरज से भर देती है ,
मन कहता रंगों की दुनिया
की मैं एक रंगोली हूं
और कभी जब वीणा के
तारों से बातें करती हूं
अंतर में झंकार सी उठती
एक अवाज़ सी सुनती हूं
सातों सुर हैं मां- जाए
और मैं उनकी मुंहबोली हूं
राग रागिनियां संग हैं मेरे
फ़िर मैं कहां अकेली हूं

1 comment:

  1. बहुत अच्छा लगा . सच तो ये है आप कहाँ अकेलेे हो यदि साहित्य का साथ है
    संजय

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