Wednesday 19 October 2011

इन्तजार


भोर की पहली किरण
से जागकर
खोलकर पट द्वार के
अकुलाई-सी ,
दूर तक की डगर वह निहार आई…                                                           
शीतल पुरवाई ने पूछा
हाल तो
कुछ न बोली,
पर नजर शरमा गई
उसने कहा था—आऊंगा
कब आएगा नहीं जानती
वह तकेगी राह
उसकी उम्र भर
राह पर नजरें टिकीं
है रोम रोम में बसा एक इन्तजार
पहला प्रहर बीता तो मन ने कहा
अब आएगा……
अपलक निहारती
छूट न जाए पकड से निगाह की
लौट न जाए  द्वार तक आकर के भी
प्रहर पर प्रहर बीते
दिवस का अवसान आया
वह न आया……
सांझ आई
स्याह चूनर डालकर
कुछ पल ठहर कर चली गई 
फ़िर रात आई
दीप तारों के जला कर रख गई
द्वार खुले ही रहे
इन्तजार जागता रहा
आज फ़िर ,
बडी शिद्दत से उसने अपने अंदर
लहरों की व्यथा का एहसास पाया
तडप कर आना तट तक
पछाडें खाना
सर पटकना पत्थरों पर
लौट जाना आह भरकर…
मन के भीतर भी अगर
है कोई समंदर
तो लहरें भी होंगी
और उनकी व्यथा भी
और होगा इन्तजार भी अनवरत………    
                                    

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