Saturday, 29 October 2011

फ़िर मैं कहां अकेली हूं


कभी कभी ऐसा लगता है
कि मैं बहुत अकेली हूं
और कभी ऐसा लगता है
जैसे एक पहेली हूं
मन के सातों द्वार खोलकर
जब भीतर पग धरती हूं
उस चित्रकार के चित्रों को
जब सांगोपांग निरखती हूं
रंग भरी यह अद्भुत दुनिया
अचरज से भर देती है ,
मन कहता रंगों की दुनिया
की मैं एक रंगोली हूं
और कभी जब वीणा के
तारों से बातें करती हूं
अंतर में झंकार सी उठती
एक अवाज़ सी सुनती हूं
सातों सुर हैं मां- जाए
और मैं उनकी मुंहबोली हूं
राग रागिनियां संग हैं मेरे
फ़िर मैं कहां अकेली हूं

Thursday, 27 October 2011

कह नहीं सकती


     प्रेम की भाषा
     मुखरित हरदम
     बाकी सब परिभाषा गौण…      
     कह नहीं सकती
     हम दोनों में
     धूप कौन है ,छाया कौन ?

     भोर जगाती
     हम दोनों को
     किरणों के हरकारे भेज
     सांझ सजाती
     चांद सितारे लेकर
     सुख सपनों की सेज

     हाथ थाम कर
     चला किए हम
     ऊंची नीची राहों पर
     सुख दुख के हर लम्हे झेले
     हमने हरदम
     मिल जुल कर

     मैं रोई तो आंसू मेरे
     उसकी आंखों में 
     भी छलके
     मेरे मन की
     खुशहाली में
     हुआ प्रफ़ुल्लित जी भरके

     यूं तो अपना रिश्ता अद्भुत
     कई कई जन्मों
     का है साथ
     हे ईश्वर इतनी विनती है
     कभी न छूटे अपना हाथ

     खुशियां बाटें कभी न सोचें
     अपना कौन पराया कौन…
     कह नहीं सकती
     हम दोनों में
     धूप कौन है छाया कौन…??
                           

Monday, 24 October 2011

फ़ूलों के देश में


             कोई तडप के पुकारे ,
             दोनों बांहें पसारे ,
             मैं दौडी चली आऊं
             अपना तन-मन लुटाऊं…
             जैसे कलियां लुटाती हैं
             भौरों की धुन पर
             तन-मन सारा
             परागों के वेश में
             फ़ूलों के देश में………। 

मैं पिंजरे की मैना


मैं पिंजरे की मैना
यह पिंजरा
मेरा घर-आकाश...
एक दिन देखा द्वार खुले
सोचा
आँगन देखूँ
धीरे-धीरे चलकर   चाहा
बाहर आना,  
पतली सी एक डोर बँधी है पांवों में
यह उस दिन जाना ......
फिर एक दिन
देखा
गगन भरा कई रंगों से ,
और निखरी रंगत धरती की
धीरे से पँख पसारा और
उड़ना चाहा..
पर हाय री किस्मत..
पर भी कतरे हुए हैं मेरे
उस दिन जाना ..
मैं पिंजरे की छोटी मैना....









                    

Wednesday, 19 October 2011

इन्तजार


भोर की पहली किरण
से जागकर
खोलकर पट द्वार के
अकुलाई-सी ,
दूर तक की डगर वह निहार आई…                                                           
शीतल पुरवाई ने पूछा
हाल तो
कुछ न बोली,
पर नजर शरमा गई
उसने कहा था—आऊंगा
कब आएगा नहीं जानती
वह तकेगी राह
उसकी उम्र भर
राह पर नजरें टिकीं
है रोम रोम में बसा एक इन्तजार
पहला प्रहर बीता तो मन ने कहा
अब आएगा……
अपलक निहारती
छूट न जाए पकड से निगाह की
लौट न जाए  द्वार तक आकर के भी
प्रहर पर प्रहर बीते
दिवस का अवसान आया
वह न आया……
सांझ आई
स्याह चूनर डालकर
कुछ पल ठहर कर चली गई 
फ़िर रात आई
दीप तारों के जला कर रख गई
द्वार खुले ही रहे
इन्तजार जागता रहा
आज फ़िर ,
बडी शिद्दत से उसने अपने अंदर
लहरों की व्यथा का एहसास पाया
तडप कर आना तट तक
पछाडें खाना
सर पटकना पत्थरों पर
लौट जाना आह भरकर…
मन के भीतर भी अगर
है कोई समंदर
तो लहरें भी होंगी
और उनकी व्यथा भी
और होगा इन्तजार भी अनवरत………    
                                    

Friday, 14 October 2011

ओ देवदूत


                उसने कहा---
                कल मैंने एक सपना देखा
                एक डाल पर बैठी हूं
                सामने की डाल पर
                तुम आकर बैठे
                धूप जैसा रूप है तुम्हारा
                सुनहरा ,पीला
                चमकीला………
                हाथ बत्तख के पंखों जैसे हैं
                नरम ,मुलायम ,उजले
                मेरा चेहरा थामकर
                तुमने कहा
                तुम बिल्कुल चांदनी जैसी हो
                शीतल ,कोमल,उजली
                ठीक उनकी तरह
                तुमने ऊपर उंगली उठाई
                मैंने देखा
                ऊपर कई छोटी छोटी परियां उड रहीं
                श्वेत पंखों वाली
                रूई के फ़ाहों सी…………
                मैं मन ही मन मुस्कुराई
                फ़िर तुमने मुझे नहीं पहचाना ना…!!
                देवदूत !
                मैं परी ही तो हूं
                तुम्हारी परी………
                उड जाने को पंख फ़ैलाना चाहा
                और सपना टूट गया………
                चुपचाप सुनता रहा वह
                कुछ भी बोल नहीं पाया
                क्या कहे
                कौन सा रिश्ता है
                किससे ,किस जनम का
                कोई जान सका है भला…?   

Wednesday, 12 October 2011

तू नमस्य है


तू नमस्य है
त्यागमयी जीवन भर ,
सर्वसहा तो है ही
तू धरती की तरह
करुणा सदा झराया तो फ़िर
झरने सी तू कोमल है
प्रेम सरित सी बहती
तेरा मन कितना
निर्मल है………
वाणी मधुर तुम्हारी
तू प्रकति का ही रूप लगे

प्यार भरी छाया
मिल जाती
तेरे आंचल के तले सिमट
खुश होकर कर लेती है तू
रिश्तों की भी साज संभाल
सुख सपने आकर घेरें
जब गोद में
सिर रख ले कोई
जाया हो या जननी
तू बस मां का ही प्रतिरूप लगे

ताप ग्रहण करके
सूरज से
जैसे शीतल है चंदा
जब तक मन में अम्रृत है
तब तक औरत है गंगा

Saturday, 8 October 2011

ज्वार भाटे


 उसने कहा 
 मन तो समंदर है
 लहरों के उठते रहते हैं 
 ज्वार भाटे…………
 आनन्द के, उल्लास के,
 चंचलता के,
 विकलता के
 वह बोला…………
 तो मैं कब आऊं 
 ज्वार में या भाटे में…?
 नजरें झुका लीं उसने
 बहुत धीरे से बोली
 ज्वार में आए
 तो बहा ले जाऊंगी दूर तक
 भाटा में आए
 तो संग ले डूबूंगी………
 कोई कुछ नहीं बोला
 बोल उठी खामोशी
 बज उठे जल तरंग से
 बोलती रही धडकन
 वह सब कुछ
 जो अब तक अनकहे रहे
 स्रृंष्टि के आरम्भ से…………