Saturday 14 February 2015

आंगन के आकाश में


ठीक ठीक याद है
चांद हमारे आंगन के आकाश में ही
रहता था
पिछवाडे के बडे बरगद के पीछे ही
कहीं घर था उसका
धीरे धीरे पेड पर चढ्कर तब
आता था हमारे आंगन में
पूरी रात खेलता था तारों संग

हां मुझे याद है
किसी थाली में पानी भरकर
हम उसे नीचे भी बुला लेते थे
आराम से आ जाता था वो

अब क्या हो गया
चांद दूर हो गया
या आकाश ही ऊंचा हो गया
उसने अपना घर बदल लिया शायद

तब खेत खलिहान पसंद थे उसे
बरसाता रहता था जी भर चांदनी सब पर
हंसता रहता था खुले गगन में
बादलों संग डोलता फिरता था
लुका छिपी के खेल खेलता
कितना सुंदर लगता था

अब रूठा रूठा सा रहता है
सहमा सहमा
पांच मंजिले पर चढ कर छत पर जाती हूं
तब ही देख पाती हूं
उसकी चमक भी कम ही हो गई लगती है

सुना है पूनम की रात
उतरता है
चांदनी की सीढियों से
आता है समंदर की बावरी लहरों से मिलने

सोचा है छुपकर बैठूं वहीं कहीं
पूछूं हाथ पकडकर
कौन से जतन करूं
कि आए फिर से मेरे आंगन में

मेरे आंगन के आकाश में……………

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