Saturday 7 February 2015

संवाद

कई कई संवाद
जो अबोले ही रहे
न मैं बोल पाई
न तुमने ही बोलने की जरूरत समझी
लेकिन गूंजते रहते हैं जो
ह्र्दय के आकाश में
जिनकी प्रतिध्वनि छूती रहती है
मन के तार
लगातार……………
मन ही मन बोलकर
खोलती रहती हूं अपना ही राज
तुम्हारे सामने
लगता है समझ भी रहे हो तुम
मेरे इस मौन संवाद को
मुझे तो प्रत्युत्तर भी मिल जाया करता है
अक्सर…………
सपनों की ओट में पलते ये पल
कभी कहते हैं
थाम कर मेरे हाथ को
कलेजे से लगाया क्यों बोलो तो
घुमाकर चेहरा
टिकाकर निगाहें कहीं और
मुस्कुराया क्यों बोलो तो
ध्यान से पढते हुए मेरी
हथेली की लकीरों को
क्या कहने को विकल हुए होठ तुम्हारे
बोलो कभी पूछा मैंने
क्यों पूछती भला
मैं तो सुनती रही तुम्हारे ह्र्दय के
संवाद को
हर बार सांसों में घुलते
मधुमास की सुगंध  के साथ
हर बार महसूसती रही
पिघलकर मिलती हुई रूह को
जिसके लिये कोई बंदिश कोई रुकावट नहीं
किसी भी तरह की
जो आजाद है
अबोले संवाद की तरह
सुन लो जहां तक सुन सको
चुन लो सुख सपनों की कलियां

जितनी चुन सको……………………

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