Wednesday 3 September 2014

खत

मुडे तुडे कागज का यह टुकडा
तहाये हुये कपडों के नीचे से
छुपकर झांकता हुआ
जैसे आवाज देकर
पुकारता रहा कब से
आज निगाह पडी
धीरे से बाहर निकाल कर देखा

कभी सहेज कर रखा होगा मैंने
आज यह मुड मुडा कर भी
सहेजे हुये है कितनी
मीठी मधुर यादों को

दिल में कुछ उमडता घुमडता हुआ
महसूस हुआ
आंखें धुंधला सी गयीं
उंगली के पोरों से छूकर लगा
छू लिया हो बीते लम्हों को
हर शब्द जैसे बातें कर रहे हों
प्यार से मनुहार से
लाड दुलार से
और इन शब्दों के आर पार भी
लिखी हुई हैं हजारों बातें
अब भी पढ सकती हूं
ज्यों की त्यों

दावे से कह सकती हूं
भावनाओं और उसके स्पंदन को भी
बरसों बरस सहेज कर रखने की
सामर्थ्य और किसी में
इतनी नहीं हो सकती
जितनी इस कागज के टुकडे में है
गुजरे हुए समय को
महसूस करा देना
दिल में उतरकर हिलोरें जगा देना
यह सब तो बस खत ही
कर सकता है

चाहे वह किसी का हो………॥

No comments:

Post a Comment