Wednesday 6 August 2014

मेरे भी तुम्हारे भी

आऊंगी मैं
तुम इन्तजार करना
चंद कदम चलकर उस मोड तक आना
हां से शुरु होती है वह पगडंडी
जिस पर पहले भी चले हैं हम साथ साथ
क्या हुआ जो अरसा बीत गया
सांस लेते हैं अब भी
कुछ सपने कुंवारे
मेरे भी
तुम्हारे भी……………

जहां शाम होते ही
आ जाता था रात का मुसाफिर
गुलमोहर के पत्तों से झांकने
सुनता था हमारी बातें छुपकर
उसके मुस्कुराते ही
बरसती थी रिमझिम चांदनी
भींगते थे ख्वाब सारे
मेरे भी
तुम्हारे भी………………

जहां छोटी सी दरिया
ठहर गयी सी लगती थी
थक गयी हो जैसे चलते चलते
सुस्ताती थी वहां आकर
अब भी कई ख्वाब बस रहे हैं
किनारे किनारे
मेरे भी
तुम्हारे भी…………



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