Thursday 20 June 2013

एक एक करके


कोई तो है
इस अद्भुत स्रृष्टि को रचने वाला
जब भी आंखें मूंद कल्पना की है मैंने
एक छवि आई है ध्यान में
गोलाकार ,रौशनी से भरे
जगमग जगमग दायरे में
शुभ्र पीत परिधान में
मंद मंद मुस्कुराता
गले में अनगिनत मोतियों की माला
नरम गुलाबी बायीं हथेली में थामे
कोई पात्र
अक्षयपात्र ही होगा
दायें हाथ से मुट्ठी भर भर कर
दाने बिखराता
मोती के दाने
मोती पलों के,
संझा प्रभात के,दिवा रात्रि के ,
बरसों के ,अरसों से
एक ही लय एक ही क्रम
लुटाता अनमोल खजाने लम्हों के
खत्म नहीं होते दाने
थकते नहीं हाथ
पीतवसन दानी के
जैसे कोई दाने खिला रहा हो चिडियों को
अनगिनत चिडियां अनगिनत दाने
थमता नहीं सिलसिला
जीव मात्र की खातिर लुटाता
दाने भाग्य के भी
किसी को सुख ,संतोष
अनवरत दुख किसी के हिस्से आता
जाने किन पोथियों में
सबके कर्मों का हिसाब रखता है जादूगर
सोचती हूं
कभी रू ब रू हो पाऊं
तो पूछूं
कितने दिन रात और हैं मेरे हिस्से के
बता दे  स्रृजनहार
कि मैं बांध सकूं गठरी
समेट लूं धीरे धीरे अपने हाथ पांव
खोल लूं बंधन माया जाल के
सुना है कुछ भी नहीं जाता साथ
सही है ,भव सागर पार करना है
सर पर कोई भार हो तो
तैरना मुश्किल होगा
खुले होने चाहिये हाथ पांव
यह भी सुना है
कुछ न कुछ अरजना भी होता है
बांधनी होती है उसी की गठरिया
इसकी कमाई भी कठिन
प्राणी मात्र की आत्मा से निकली हुई दुआ
किसी को सुख देकर अरजी हुई संपदा
जीवनदाता
इतनी समझ दे मुझको
बटोरूं नहीं ऊल जुलूल
व्यर्थ न गुजारूं पल अनमोल जीवन के
करूं वह जो तू चाहे
सुख पाऊं उतने में जितना तू दे
और खोलती जाऊं बंधन
एक एक करके
अरजती जाऊं मोती एक एक करके
जैसे तू बिखेरता जाता है दाने
एक एक करके………




1 comment:

  1. Aapke haath v na thaken, likhte jaayen hamesha.......

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