Thursday 20 June 2013

रिटर्न जर्नी

रोज देखती हूं
सूरज का उगना
धरती की गोद से उठकर
गगन तक पहुंचना
कितनी जल्दी जल्दी भरता है डग
जैसे किसी बात की जल्दी हो
अभी अभी गुलाबी थी किरणें
अभी लाल हुईं
और देखते ही देखते
चमचमाने लगा सुदूर आसमान में

रोज देखती हूं
सूरज का डूबना भी
उतरना शाम की डोली से
धीरे धीरे धीरे
सुस्ताते हुये चलता है
कुछ देर पर्वत की चोटी पर
कुछ देर पेड की फ़ुनगी पर
पत्तों को ,शाखों को
छूते छूते उतरता है नीचे हौले हौले
उसे कोई जल्दी नहीं होती
यह उसकी रिटर्न जर्नी जो है

लौटती यात्रा ऐसी ही होती है
थकान भरी ……
जाने की सारी उत्सुकता
समेटकर बांध लेता है यात्री
सहेज सहेज कर ले जाता है जो सामान
उन्हें ही जैसे तैसे बांध लपेटकर रख लेता है

जितने ख्वाब जितनी कल्पनायें
पलकों में छुपाकर ले जाता है
उन सबको
पूरे अधूरे रूप में ही
संभालकर रख लेता है मन के कोने में

सोचती हूं हर यात्रा की शाम
ऐसी ही होती है

हमारा आना
प्राणी मात्र का आना धरा पर
हंसी खुशी भरे कोलाहल से शुरु होकर
पीतल की थाली की ठन्न ठन्न
या ढोलक की थाप से शुरु होकर
किलकारियों के रंग भरे उत्सव तक
बिखरता पसरता जाता है

और लौटना
एक चुप्पी एक मौन
अंतहीन शांति में समाहित हो जाता है
सब कुछ
कहां रह जाती हैं पोटलियां
कहां छूट जाते हैं साजो सामान
कहां खो जाती है रौनक सारी
सारी उत्सुकता कहीं खो जाती है

रिटर्न जर्नी सबकी ऐसी ही होती है……

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