Thursday 20 June 2013

पुराना मकान




अच्छा भला  खडा था
दोमंजिला मकान
रहते थे भरे पूरे दो परिवार
नन्हे बच्चों की किलकारियों से
गूंजता था  कोना कोना
हां पुराना हो गया था वह मकान

बसी थी उसकी दीवारों में कई पीढियों की कहानी
देखा था उसके आंगन और बरामदे ने
कितने उत्सव कितने त्योहार
सुख और उल्लास के पलों में
शामिल थे झरोखे उसके
हां  दु के भी आंसू
सुखाये थे उसकी चौखट ने  कई बार

उसके बाहरी बरामदे पर
झूलती रहती थी आरामकुर्सी
वक्त के चित्रपट पर
दिखाती रहती थी तस्वीर गुजरते लम्हों की
और पुरानी बेंच पर बैठा रहता
एक नन्हा सा बालक
चुपचाप निहारता राहगीरों को
जाने क्या सोचकर
मुस्कुराता
अपने आप में खोया खोया सा
आने वाले समय की कोई झलक
देखता था शायद वक्त के आर पार

कल तक भरा पूरा था वह मकान
आज समय के चक्र ने
लिख दिया उसके भाग्य मे नवनिर्माण
जैसे विशाल तरुवर
अपनी छाया में पनपे पौधों की खातिर
त्याग देते हैं अपनी काया
जैसे बुजुर्गवार
अपनी संतति की खातिर
खाली कर देते हैं जगह जमीन पर
वैसे ही नये मकान के निर्माण की खातिर
ढहा रहा वह भी वजूद अपना

हालांकि सिसक रहीं दीवारें
कुंहक रहे गलियारे भी
और चीख पुकार झरोखे भी मचा रहे
शांत है बूढा मकान
बदलते समय की आहट पहचानता
चुपचाप छेनी हथौडियों की
चोट सहता ,उफ़्फ़ न करता…॥


ऐ खुदा
बनते रहें चाहे हजारों नये मकान
टूटते रहें चाहे लाखों
पुराने मकान
टूटे न घर किसी का कभी किसी भी हाल में
रिश्तों की ईंट प्यार के गारे में
इतनी मजबूती देना………


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