Monday 17 December 2012

क्या कहूं


इन वादियों में
तुम्हें देखा

भोर पलकें खुलने से लेकर
रात आंखें मूंदने तक
जिस कल्पना के ताने बाने बुनता
रहता है मन मेरा
क्या कहूं
स्वप्न चित्र की भांति
दीख जाता है वह सब कुछ
यदा कदा...
हरी भरी वादियों से होकर
जब गुजरी
दूर किसी नन्हें से बालक को देखा
एक हाथ से निकर संभाले
एक हाथ में किसी की
कटी हुई पतंग
लेकर भागता हुआ
भागकर सीधा मेरी बाहों में
पनाह लेता हुआ...
तुमने कहा था यह तुम्हारा शहर है
यहां की गलियां
तुम्हारे बचपन की निशानियों से भरी हैं
मैंने वही तो देखा..
.
उधर उस तालाब के पानी में
पांव डुबाकर बैठे हुये
एक हाथ में कमल की डंडी
दूसरे  से पानी उलीचते
मुस्कुरा रही हूं मैं
सचमुच नटखट
था बचपन तुम्हारा...

अक्सर कहते हो तुम
मैं पूर्ण पैकेज हूं
तुम्हारे लिए
कभी ममता लुटाती
कभी स्नेह से पुचकारती
कभी गले लगाकर
अशेष प्रेम बरसाती
मुझे भी यही लगता है
ऐसी ही हूं मैं
और ऐसे ही हो तुम भी
एक दोस्त , एक सखा
एक हमसफर
क्या नाम दूं तुम्हें
कि जब भीतर  उमड्ता
घुमड़ता भी है कुछ
तो ढूंढता है मन तुम्हें
ताकि सर रख सकूं तुम्हारे कंधे पर
तुम्हारी पुकार
तुम्हारा व्यवहार
जोड्ता जाता है
हृदय के तार
हर दिन हर पल
जैसे गुंथ जाते हैं पुष्प
एक धागे में.....  

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