ठीक याद है,मैं छोटी थी
अम्मा मेरे बाल बनाती
नरम हाथ से धीरे-धीरे
मेरे उलझे लट सुलझाती
मैं घुटनों को बाँहों में ले
कच्चे- पक्के सपने बुनती
उन सपनों ने आगे चलकर
कलम हाथ में ले ली…
मेरे सँग गलबतिया की
मेरी गुडियो सँग खेली
मेरी कविता बनी सहेली
हम दोनों सखियो की दुनिया
जादुई और अलबेली,
कभी चढी पर्वत की चोटी
लहरों से कभी खेली…
अब वह मेरी एक सँगिनी
सुख सपनों के आहट सी
हर इच्छा ,अभिलाषा को
ठीक समझ वह जाती
मेरी आँखें छलकें उसके
पहले गाल थपक देती
अगर कभी मुस्काना चाहूँ
पुष्पगुच्छ सी खिल जाती
चेतन और अचेतन मन की
सुख के दुख के हर लम्हो की
साथी मेरे अंतर्मन की………
ललित भोर की प्रथम किरण सी
धीरे-धीरे आने वाली,
साँझ ढले की आभा जैसी
जादू बनकर छाने वाली,
जीवन की यह डगर कठिन
मैं उसके बिना अकेली
मेरी कविता मेरी सहेली……………
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