बाबा !
तुमने कितना चाहा
मुझे स्वच्छंद आकाश मि्ले
जब भी अपने पंख पसारूं
पुलक भरा अहसास मिले…
जब अबोध थी, तुमने मेरी
उंगली थाम चलाया
तेरे ही कंधो पर मैंने
बचपन का सुख पाया…
मेरे सपनों को अपने
आशीषो से तुमने सींचा
स्नेह, प्रेम आदर की भाषा
मैंने तुमसे ही सीखा…
तेरे निर्देशो पर चलकर
धीरे-धीरे उडना सीखा…
अनजानी राहों पर हरदम
निर्भय होकर चलना सीखा…
तुम क्या बिछडे ,मन उपवन से
बिछुड गई हरियाली…
जहाँ भी जाऊँ भीतर हरदम
लगता खाली-खाली…
आज कहाँ से लाऊँ मैं
सिर पर रखने वाले हाथ
इतनी भी क्या जल्दी थी
कुछ दिन और ठहरते तात्
कुछ दिन और ठहर जाते…।
( दिवंगत पिता की याद में )