Tuesday 5 May 2015

बहुरुपिया

याद होगी हर किसी को
बहुरुपिये की
गर्मियों की तपती दोपहरी
तरह तरह के रूप बनाकर
आता था वो
बच्चे डरकर भागते कभी
कभी पीछे पीछे गली मुहल्ले घूमते रहते

आंखें बंद करती हूं
तो अपने भीतर भी कई रूप दीख जाते हैं
हैं भी
हर किसी में रूप बदलने की
समय के अनुरूप ढल जाने की
अद्भुत शक्ति
सामर्थ्य…………

कभी किसी के भीतर का रचनाकार
उभरकर सामने आता है
और रचने बैठ जाता है
कुछ अनकहा

कभी किसी के भीतर का संगीतकार
गुनगुना उठता है
कुछ अनसुना सा    

कभी प्रलय बनकर
बहा ले जाती है भावनाओं को
कोई लहर
जब भीतर का समंदर मचल जाता है
कभी बस
चांदनी बन छिटकती रहती है
कोमल मन की बात किसी की

बहुरूपिया हैं हम सभी
रूप बदल सकते हैं
बदलते भी हैं
सिर्फ गर्मी की दोपहरी में नहीं
हर पल हर वक्त ……



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