Wednesday 13 May 2015

रिश्तों की परख

रिश्तों से मधुर भी कुछ
होता है क्या……

काश रिश्तों के कुछ रूप
रस गंध होते
कौन सा मीठा कौन तीखा है
कौन सा मन में तल्खियां घोलने वाला
किसमें कितनी मुलायमियत है
कौन कुछ कड्वे असर देने वाला
पहले से पता चल जाता

हमने तो बस रिश्तों को
मधुर ही जाना
रूप रस गंध से इतर
जीने का बहाना माना

काश इनकी कोई नब्ज भी होती
छूकर ही जान जाते हम
प्रवाह कितना है गति कितनी है

कभी थम जाती है जब गति इनकी
लगता है जैसे
रुक रही हो  सांस अपनी
एक बेचैनी सी ब्याप जाती है
लगता है कुछ भूला सा
वक्त लग जाता है
इस दौर से उबर पाने में
काश माप लेते हम अहमियत इनकी
अपने वजूद में कितनी है

हमने तो बस रिश्तों को शाश्वत जाना
एक अवलम्ब एक सहारे सा
ठोकर से संभालने को तत्पर
रास्तों का उजाला जाना………

कहते हैं वक्त आने पर
रिश्तों की परख होती है
वक्त आएगा हो जाएगी परख इनकी
हमने तो बना डाले रिश्ते अनगिन
आसान हो गयी है
अब डगर अपनी
बचकाना सा ये सवाल लगता है
रिश्तों से मधुर भी कुछ
होता है क्या……

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