Saturday 22 November 2014

बैलगाडी

अहा…
आज अरसों के बाद
यों कहें बरसों के बाद
पक्की सडक के किनारे मस्त चाल से चलती
एक बैलगाडी दीखी……

दो स्वस्थ सुंदर बैलों के कंधों पर जुती
लकडी की छोटी सी सवारी
गाडीवान ने खूब ही सजाया था बैलों को भी
उनके सींगों को लाल रंग से रंगा था
गले में बडी बडी लाल काली मोतियों की
माला पहनायी थी
और टुनुर टुनुर बजती घंटियां उनसे बांध रखी थी
खूब इतरा कर चल रहे थे दोनों
मानों शहर घूमने निकले हों बन ठन कर
गाडी पर बांस की चटाईयों का छाजन
और उसके भीतर
लाल चूनर में सिकुडी सिमटी नई नवेली दुल्हन
तभी……
तभी मैं कहूं इतना रोब रुआब काहे का है भला
ये मूक पशु भी जानते हैं वक्त के मिजाज
कब खुशी का माहौल है
कब चुप रहना है…
सोचते होंगे कल से सानी पानी लेकर
आयेगी नयी दुल्हन
पुचकारेगी अपनापन जतायेगी

कुछ दूर तक साथ चलने की गरज से
मैंने अपनी गाडी की चाल धीमी कर दी
गौर से देखती रही
पर निगाह जैसे वक्त की लम्बी दूरी तय कर
पीछे लौट गयी हो
कई कई  द्रृश्य आंखों के आगे
आने जाने लगे

कहीं पुआल की ढेरी लाद कर जाती
थोडा थोडा पुआल गिराती
गुजरती हुई बैलगाडी
कहीं बांस के बडे बडे लट्ठे ढोती
जिनके ऊपर शान से बैठा गाडीवान
हाथ में सोंटा लिये
बैलों की ही
भाषा में बतियाता जाता

कहीं सवारियां बैठाकर
गन्तव्य तक पहुंचाता
थोडी सी जगह में झोले
टीन के बक्से छोटी बडी गठरी 
और गज भर की घूंघट डाले बहू बेटियां
साथ में पूरा का पूरा कुनबा

कच्ची सडकों पर
जहां मोटर गाडी नहीं चल सकती
यही काठ की गाडियां
बैलों के कंधों के सहारे
कितने कितने काम आराम से कर लेती हैं

लम्बी लम्बी दूरी इन मूक पशुओं के साथ
आदमी तय कर लेता है
एक दूसरे की भूख प्यास थकान को
देखते समझते
और बोलते बतियाते

अचानक जैसे तंद्रा टूटी हो
मेरा ध्यान घंटियों की लयबद्ध आवाज पर
चला गया
किसी ने कहा भी है
बैलों के गले में जब घुंघरू जीवन का राग
सुनाते हैं……
सच है
अपनी अपनी दुनिया में सब मस्त रहते हैं
ये बैल भी मस्त हैं गाडीवान भी
सवारी भी और

बैलगाडी भी……………………।

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