Sunday 9 November 2014

कंचे

धूसर सा गत्ते का डब्बा
ताखे पर से
आवाज लगा रहा था
कई रोज से अनसुनी करती रही
आज बेमन से उतारने लगी
लेकिन
बेखयाली में हाथ से छूट गया
और छूटते ही
लाल पीली हरी नीली कांच की गोलियां
घर भर में छितरा गईं
कुछ देर तक टन्न टन्न
छन्न छन्न की आवाज गूंजती रही
और फिर चिकने समतल फर्श पर
फिसलते कंचे
कोने कोने में जा छुपे
क्या बताऊं
बटोरने में कितनी मशक्कत
करनी पडी
बडी मुश्किल से समेट सकी

फिर भी कई रोज तक मिलते रहे कंचे
कभी पलंग के पाये में छुपे
कभी पांवपोंछ में दुबके
कभी किसी छोटी सी जगह में
अटके पडे
इन कंचों में जैसे पूरा पूरा बालपन
छुपा पडा हो
शैतानियां कूट कूट कर भरी हों
बच्चों संग खेलते खेलते जैसे
इनमें भी नटखटपना समा गया हो

एकबारगी याद आ गया
स्कूल का मैदान
ठीक इसी तरह
छुट्टी की घंटी लगते ही
सैकडों बच्चे फव्वारों की तरह
झरते हुए बिखर जाते थे
पूरा मैदान एक से रूप रंग
एक सी लिबास में जगमगाने लगता था
तब अपने बच्चे को पहचान पाना भी
इतना ही मुश्किल होता था


वे दिन भी क्या दिन थे
स्कूल की घंटी स्कूल का मैदान
स्कूल का परिवेश
सब अपनेपन के सुगंध से भरा होता था

मुन्नू के बस्ते से
अक्सर ये रंग बिरंगे कंचे निकलते
कितनी डांट लगती थी तब उसे

अभी मानों यही कंचे
मुंह चिढा रहे हों
मुन्नू अब बडा हो गया
मुन्नू का बचपन युवा हो गया
पर नन्हा सा यह कंचा
अभी तक चंचल नादान सा बच्चा है

बडे जतन से सहेज कर रख दिया मैंने
इन कंचों को
उसी धूसर से डब्बे में
उसी जगह ताखे पर
कि आवाज लगाता रहे मुझे
आते जाते सुनती रह सकूं पुकार उसकी
जब कभी खोल कर झांक सकूं
उसमें छुपे लम्हों को
और सुख पा सकूं…………




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