Tuesday 10 June 2014

रूठना मनाना

गलती तुम्हारी थी
मैं रूठ गयी
तुमने मनाया भी नहीं
रूठी रूठी मैं अनबोली
इन्तजार करती रही
तुम्हारे मनाने का
तुम्हारे संसार को
सजाती रही सपनों से
हमेशा की तरह

मुझे लगता रहा
यूं रूठकर मैं जीत गई
तुम्हें लगा
तुम जीते मुझे मनाकर
हर बार की तरह

जानते हो क्या होता है ऐसे
हमारे तुम्हारे अहं का धुंधलका
हमारे कई कई दिनों के
खुशनुमा पलों को रौशनी से
नाबाद रखता है
खूबसूरत पल
आते और झरोखे से झांककर
लौट जाते हैं
मैंने देखा है उन्हें
यूं लौटते द्वार से
कब निकलेंगे हम
अपने अहं के अन्धकार से……


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