Tuesday 10 June 2014

पथ पर

पथों के जाल से बिछे
सडकें गलियां पगडण्डियां
कौन सी राह कहां तक लेके जायेगी
कोई नहीं जानता
मंजिल के कितने करीब
या कि मंजिल तलक…
या फ़िर छोड देगी बीच राह में ही
ऊंचे नीचे ऊबड खाबड
पथरीले सुगम रास्ते
कभी ठंढी सुहानी हवा
कभी लरजते बरसते मेघ भी
चलता जाता है पथिक
चलती रहती जिन्दगी
जाती है मदद को
कभी अपनी अच्छाईयां
कभी जाने अनजाने की गई कोई नेकी
कभी कोई अच्छी भली भावना ही

हाथ थाम कर ले चलती है
निकाल देती है दुर्गम कंटीली राहों से

और कभी चुपके से उपजी हुई
कोई बुरी भावना
चुभ जाती है तीखी कंकरी बनकर

अपनी ही बोई हुई होती है
झाडियां झंख़ाडियां
राह की नरम दूब भी
अपनी ही अरजी हुई होती है
शीतल छांह भी

तपती धूप भी…॥

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