Thursday 24 January 2013

रात भर


ठंढी उजियारी रात    
आधी जागी आधी सोयी सी हूँ
पार झरोखे के
वह आया  
रश्मियाँ बिखेरता
मंद मंद मुस्काता

उनींदी पलकों ने हौले से  पूछा
कौन हो तुम...
इतनी शीतल छुअन है तुम्हारी  
नरम नरम उंगलियों से
लटें संवारते
और दुलराते से

मद्धिम आवाज में बोला
पहचाना नहीं ?
मैं हूँ –-
जान रे !
तेरी अपनी ही छाया
तुम्हारी धड़कनों में समाया
तुम ही तो कहती हो
कि साँसों में भी घुला
हुआ हूँ मैं
और  
भूल पाती नहीं तुम मुझे
एक पल को भी
कि साँस लेना भी कोई भूलता है क्या

कसक सी हुई
उठ बैठी
हथेलियों पर चेहरा टिकाया
और देखती रही अपलक
मंत्र मुग्ध सी

वाकई तू जान है मेरी  
जनम जनम का नाता है तुझसे
छुटपन की याद है
आ जाता था मुंडेर पर
कभी आँगन के आसमान में
ऐसा ही गोल मोल
ऐसा ही प्यारा

उस बगीचे के पार
अमराइयों में
छुप्पा छुप्पी के खेलों में
तू भी शरीक होता था   
मौलश्री की लताओं की ओट में
कभी कचनार के फूल पत्तों में
छुप जाता था   
झील के किनारे तो अद्भुत
लगता था  तू
ऊपर दूर आसमान में भी
नीचे अतल गहराइओ में भी
न जाने कहां से सीखी तूने
जादूगरी यह ...

सुन !
एक बात पूछती हूँ  
भीतर बुला लूँ तो आ जाओगे
या हँसकर कहोगे --
मैं तो लंबी राह का राही हूँ
नहीं बांध सकता कोई
प्रेम पाश मुझे  
नहीं रोक सकता कोई डगर मेरी
कि बाँटना है मुझे
हर आँख में सपने सलोने
हर घर हर आँगन में
रौशनी की सौगात
रात भर ..............





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