Sunday 20 January 2013

मनाऊँ कैसे


बिखर रहे मेरे शब्द
जैसे बिखर जाते हैं
पानी पर
अंजुरी भर फूल
कोई इधर कोई उधर
अलग अलग दिशा
सब अलग अलग राह  

कितना सहेज कर
रखना होता है उन्हें
धागे में पिरोकर
कि साथ साथ रह सकें
बन सकें
किसी के गले का हार

ऐसे ही समेट कर रखना होता है
शब्दों को
भावों के धागे में गूँथकर
वर्ण अलंकार से सजाकर
कि रच सके कोई कविता
हू ब हू निकलकर
हृदय के साज से
छू सके हरेक दिल के तार  

पर आज न जाने क्यों
थमते नहीं शब्द अंजुरी में
गुंथते  नहीं भावों के धागे में
रचती नहीं कोई कविता

चंचल विचारों की आंधी
बिखेर देती है सबको
इधर उधर
उड़ा ले जाती है
दिग दिगंतों के पार

कोई बताए
उन्हें फिर से बुलाऊं कैसे
रूठ गयी है कलम
तो मनाऊं कैसे.........



1 comment:

  1. Bhabhi, jab shabd bikhre hain to ye seema hai. samet lijiye,Aapke poems kii koi seema nahi hogi.All the best.

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