Tuesday 12 June 2012

मुट्ठी में कुछ लम्हे हैं


       (1)
कहते हैं चलता रहता है
वक्त का पहिया
अनवरत
कभी नहीं रुकता
कहीं नहीं रुकता
गति भी रहती है एक समान
हरदम......
फिर क्या होता है कि
कभी कभी वक्त काटे नहीं कटता
बिताये नहीं बीतता
ठहर सा जाता है

और कभी कभी पंख लगाकर
यूँ उड़ जाता है जैसे
जल्दी पड़ी हो कहीं जाने की
घड़ी की टिक टिक और
दिल की धड़कन माप नहीं पाती
उसकी गति
जब चाल बदल देता है वक्त
थाह नहीं पाता
अपना मन भी
वक्त के मिजाज को

जन्म के समय हम बंद किये
आते हैं मुट्ठी
उनमें छुपाए दिन महीने साल
अपनी उम्र के...
और गुजार कर अपने हिस्से की आयु
खुली मुट्ठी लिए लौटते हैं
उस लोक को...

      (2)

मेरी मुट्ठी में
कैद हैं कुछ खुशनुमा लम्हे
तसबीह के दानों की तरह
फेरती हूँ ख्वाबों खयालों में
हरदम
और जीती हूँ
उन्हीं पलों को
बार बार....
वक्त तब बिल्कुल थमा होता है
एक जरा नहीं खिसकता
और ऐसे बढ जाती है
मेरे उम्र की सीमा
जीने की अदम्य लालसा के साथ
       (3)
वह लम्हा नन्हा सा
जब अमलतास के तने को
घेरे अपनी बाहों में
खड़ी थी मैं बिसराए सुध बुध
और तल्लीन अपनी धुन में
गुनगुनाते हुए कुछ
तुम चले आए थे बिल्कुल पास मेरे
और अचानक टकरा गई थी
निगाह .
वह क्या था जो कौंध गया था
इस पार से उस पार
भीतर कहीं...
झट से मैंने बाँध ली मुट्ठी
और रह गया वह लम्हा
मेरा होकर....
  
    (4)
फिर उस दिन
बारिश की बूँदों में सराबोर
खोल नहीं पा रही थी मैं
पलकें
और चू रही थी
बूँदें मेरे बालों से
तुमने उन्हें अपनी अँजुली में
जमा किया
न जाने क्या सोचकर
तपाक से मैंने उस जलभरी
अँजुली को उलट दिया
तुम्हारे ही माथे पर
यह कहकर कि
चढा रही जल अपने शिव जी पर
और मंत्रमुग्ध से तुम
इतना ही कहा तुमने
शक्ति हो तुम ,आरध्या मेरी
अधूरा हूँ तुम्हारे बगैर
रहना मेरे साथ मेरी होकर
कि पूरा हो सके तुम्हारा शिव
आकार मिल सके उसे
जो है
अभी निर्मोही निराकार ...

       (5)
और उस पल
जब तुम्हें सोया जान
गहरी नींद में खोया जान
मैंने हौले से फिरा दी थी
उंगलियां बालों में
लेटे हुए तुम
चुपचाप पड़े रहे आँखें मूंदे
पर जैसे ही मुडने को हुई मैं
तुमने हाथ बढा कर थाम ली
मेरी कलाई को.
बंध गई मैं तेरे
प्रेम पाश में
जा नहीं पाई
चली आई तुम्हारे साथ साथ
और वो लम्हा रह गया
मेरी मुट्ठी में
सदा सर्वदा के लिए
    (6)

ऐसे कितने ही पल
जो हमने साथ गुजारे
सफर में हमसफर बन
कदम दर कदम
हमकदम बन...
प्रकृति की खूबसूरत
वादियों में ,
सुबह की छिटकती लाली
और सांझ की गहराती
सिन्दूरी आभा में
खोए खोए से
बंद हैं मेरी छोटी सी मुट्ठी में
खोलकर मुट्ठी जब जब भी
देखती हूँ
जी उठते हैं वही लम्हे
उन्हीं एहसासात के साथ
और ठहर जाता है
वक्त का वह लम्हा
मेरा हाथ थाम
मेरे साथ साथ..

    (7) .

     
इन लम्हों ने मुझे
क्या क्या नहीं सिखाया
तन्हाईयों को हँसकर
गुजारना...
और हमेशा हमेशा तुम्हें अपने
साथ महसूस करना

खूब सबेरे
जागने से भी पहले
सुनती हूं
किसी की आहट
मीठी और हल्की पुकार
जैसे तुमने आवाज दी हो
कानों से होकर आत्मा में
उतरती सी...
और फिर मधुर धुन सी
बजने लगती है
भीतर कहीं
चलते चलते अचानक
रुकती हूं
पलटकर देखती हूँ
कि आ रहे हो तुम ही
मेरे पीछे पीछे
यह नशा यह दीवानापन
मुट्ठी में सुगबुगाते
लम्हों का ही तो असर है
जिन्हें जीती हूँ बार बार
और जिउँगी उम्र भर..।. 

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