Sunday 10 June 2012

नन्हा बांसुरी वाला


रविवार का दिन
सुबह का वक्त
सब तरफ़ सुकून का वातावरण
बच्चों को स्कूल ले जाने वाले
वैन की लगातार आती आवाजें
आज बंद हैं

दफ़्तर जाने वालों की
गाडियों के बेतरतीब हौर्न
शोर नहीं मचा रहे
साइकिल लेकर ट्यूशन जाने वाले
किशोर किशोरियों की आवाजाही
भी नहीं है आज

कोई दस ग्यारह साल का नन्हा सा बालक
एक हाथ से
कंधे पर खिलौनों से लदा
डगरा उठाए
दूसरे से बांसुरी बजाता
मोहल्ले से गुजर रहा
क्या क्या नहीं है उसके डगरे में
रंग बिरंगे बैलून
छोटी छोटी बांसुरी
प्लास्टिक की घडियां,झुनझुना
दूरबीन, चश्मा
एक पूरी दुकान ही तो है
उसके कंधे पर

अजब कशिश है
उसकी बांसुरी की आवाज में
तन्मय होकर बजा रहा
दुनिया के राग द्वेश छल कपट से
बेखबर…
समय ने सिखाया है उसे
मधुर मधुर बांसुरी बजाना
आवश्यकताओं ने भर दी है
उसकी नन्ही सी बांसुरी में
इतनी इतनी मिठास…

मैंने आवाज लगाई तो
ठहर गया,
कंधे से उतारकर डगरा नीचे रखा और
आशा भरी निगाहों से देखने लगा
क्या दूं –?

उसने बताया
उसकी मां चूडियां बेचती है
यह भी ,कि
मेरे हाथों में जो चूडी है
ऐसी भी हैं उसकी मां के टोकरे में
मोतियों वाली…

दूर तक जाते हुए देखती हूं उसे
हवा के कैनवास पर
सुरों की कूची चलाता
नन्हा बांसुरी वाला
अनगिन चित्र खींचता जा रहा

देर तक निहारती हूं
धूमिल धूमिल से चित्र
सरसों के दाने भरे बैलून से
मां की गाल पर झन झन बजाता हुआ
एक गोद का बालक…

पिता की उंगली थामे चलता हुआ
दूसरे हाथ में बैलून की डोर थामे
सजग सा कोई बालक…

इन झूठ मूठ की घडियों,चश्मों
दूरबीनों की जिद्द करता हुआ
अबोध सा बालक…

कोई नहीं जानता
आज के ये नन्हे
समय के पन्नों पर कौन सा चित्र
अंकित करने वाले हैं
कौन सी कहानी लिखने वाले हैं
जो भी हो
आज दिन भर के लिए
जरूरत भर मिठास
इस नन्हे बांसुरी वाले ने
भर दी है मेरे मन में…॥


No comments:

Post a Comment