Tuesday, 28 July 2015

ऐ कवि

ऐ कवि
तुम्हारी सहज सी कल्पना
कि नव कोंपलों सा खिलूं
हवा के झोंकों में झूमूं झूलूं
और चुपचाप अल हो जाऊं डाली से
हर किसी के अन्तर्मन की अभिलाषा होगी
अपने मन में झांककर कह सकती हूं
यही चाहती हूं तहेदिल से
मैं भी
यह भी कि जब खिलूं
खुशबू बन पवन के संग संग
चहुं ओर बिखरूं
दिल की परत खोलकर निहारूं
छांव हो कि धूप  हंसूं मुस्कुराऊं……
ऐ सुकुमार कवि
मैं भी नहीं चाहती
कोई शोर कोई मनाही
जब समय आए
खिसक लूं आहिस्ते से
मिल जाऊं मिट्टी की नरमाई में
पुन: पुन: जीवन पाने को

नव कोंपल बन खिल जाने को

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