Sunday 12 April 2015

ढूंढती हूं


ऊंचे और ऊंचे उठते
आसमान को छूने की कोशिश करते
खूबसूरत अपार्टमेंट एवं
रंग बिरंगे मकानों की कतारों के
सामने से गुजरकर
नजर वहां जा ठहरती है
जहां एक बुजुर्ग सा मकान
अपनी जर्र जर्र होती काया को
खोखले हो चले बांस बल्लियों के सहारे
खडा रखने की कोशिश में लगा है

छत के ऊपर बनी चिमनी
उसके आलीशान होने की गवाही दे रहे
लाल खप्परों का छाजन कह रहा
कभी उसने अच्छे दिन देखे हैं
जहां तहां दीवारें धंस रहीं
लकडियां टूट कर गिर रहीं
दीमकों की कतार बद्ध बांबियों से
झरती हुई भुरभुरी मिट्टी
हर कहीं नजर आ रही

भीतर कदम रखते ही
चिकने फर्श की छुअन
उसके सुनहरे अतीत की
कथा सुनाने लगती है
दीवारों पर हाथ रखते ही
मजबूत झांवां ईंटों की
खनखनाती हुई हंसी सुन पडती है

मकडियों के जाले
पीढी दर पीढी गुजरे
खुशहाल वक्त की बातें
सुनाने को बेताब लगते हैं

ढूंढती हूं वह कोना
जहां पालथी लगाए बैठा वक्त
सरासर अपनी कलम चला रहा
इतिहास रचता जा रहा……………………
       (2)
पाकड नीम पीपल के पास से गुजरते
नजर वहां जा ठहरती है
जहां एक विशाल सेमल का पेड
संत की तरह खडा है

एक भी शाखा नहीं उसके जिस्म पर
ना ही एक भी पत्ता है
उसके मुडे तुडे से अंग प्रत्यंग
कभी उसके घने छांवदार होने की
कथा सुना रहे

ठन्न ठन्न करते उसके तन ने
कितनी धूप कितनी वर्षा
कितने आंधी तूफान झेले होंगे
सहज ही समझ में आता है

कई छोटे छोटे कोटर हैं
ढूंढती हूं वह जगह जहां बैठा वक्त
अपनी कलम चला रहा
आते जाते मौसम का हिसाब
लिखता जा रहा…………………………
     (3)
यहां से वहां तक
नजरें दौडा रही
कहीं किसी किरण पर
कहीं किसी कोंपल पर
कहीं किसी ओस की बूंद पर
खिलती पंखुडियों पर
याकि चांदनी के झीने आवरण पर
कहीं तो होगा वक्त हरकारा
एक ही आवाज में
बदल देता है मिजाज मौसम के
एक ही इशारे पर बदल देता है रंग फिजा का
मांगूंगी थोडे से पल
बीतती उमर से बस एक मुट्ठी बचपन
रहने दे मेरी झोली में
जीना चाहती हूं
बचपन को बार बार
बनाकर कागज की नाव
करना चाहती हूं सात समुंदर पार
मिले वह एक बार
ढूंढती हूं वह जगह ……………।

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