Thursday 24 October 2013

युग बीते

युग बीते मिल बैठ सखी
   कुछ आपस में बतियाए
बेमतलब की हंसी ठिठोली
   करके दिल बहलाए………

कब छाए सावन की बदली
   कब बरसीं बूंदें रिमझिम
कब आया मधुमास, बजे कब
    फ़ागुन के झांझर छ्मछम…

कब कलियां खिल फ़ूल बनीं
     कब उडे सुबास उपवन में
कब झूले पडे डाल डाल पर
    कब कजरी गूंजी आंगन में…

न बारिश की बूंद में भींगे
     न सावन में झूले
कब आते कब जाते मौसम
     अब तो सब कुछ भूले…

बीत रहे दिन रैन हमारे
     करते आपा धापी
कब जाने ढल गई दोपहरी
    शाम उमर की आई…

क्या हंसने की उमर नियत है
   कोई हमें बताये
युग बीते मिल बैठ सखी
   कुछ आपस में बतियाए……

हल्की फ़ुल्की दिनचर्या हो
   बचपन फ़िर फ़िर आए
रात लोरियां गाए चांदनी
   कोयल रोज जगाए…

बदले ये जीवन के ढर्रे
    चल ! ऐसी जुगत भिडाएं
बेमतलब की हंसी ठिठोली
    करके दिल बहलाएं………

युग बीते मिल बैठ सखी
     कुछ आपस में बतियाए


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