Saturday 18 October 2014

लौटती डाक से……

लौटती डाक से पत्र देना
हर चिट्ठी के अंत में लिखती थी मां
और यही एक बात थी मां की
जो मैं एक ही बार में
सुन लेती थी
क्योंकि यही एक बात थी
जिसमें छुपे स्नेह की गंध मैं
महसूस लेती थी
वरना काहे तो कोई बात
सुनती है कोई लाडली
एक आवाज में
जगाओ तो न जागने के सौ बहाने
पुकारो तो न आने के हजार बहाने
मां की आवाज तो तब
सुनाई आने लगती है
जब उसकी चौखट से छूट जाता है नाता
या जब खुद पा जाओ
मां का ओहदा
और अनसुनी करने लगे बिटिया

शायद ही कोई खत हो
जिसका आना लौटा न ले जाता हो
बचपन के आंगन में
सखी सहेलियों की टोली में
शायद ही कोई खत हो
जो चप्पे चप्पे का स्पर्श न समेटे हुए हो
चंद पंक्तियों की ये चिट्ठियां
पिटारियां होती थीं
प्यार के स्पंदन की
स्नेह भरे आलिंगन की

पत्र का आना जाना
इंतजार के सुनहरे धागों में गुंथा
पलों का इतिहास होता था
बेटी पूछती है क्या होता है
लौटती डाक के मायने
मुस्कुरा कर कहती हूं
मिस्स्ड कौल देखकर
जैसे कौल बैक करते हैं
धत्……
हंसकर भाग जाती है वो
क्या समझेगी गुजरे जमाने की बात
अपनी मां की मां की बात………।


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