Tuesday, 22 July 2014

तीस्ता की धारा में

अद्भुत नजारा है
कुछ ज्यादा ही चमकीला
कुछ ज्यादा ही बडा चांद
है आसमान में
गुरू पूर्णिमा की रात है

अपूर्व सुन्दरी तीस्ता
इठलाती हुई बह रही
रौशनी में नहाकर
समूची धारा सुनहरी हो रही है

जब आधी रात हो चली
गगन से
धीरे धीरे फिसलता हुआ
चांद नदी के पास आया
बहुत पास
मानों जल के दर्पण में
मुख देखना चाह रहा हो

जब  सारी कायनात सो गयी
चुपके से कोई बात
कहना चाह रहा हो

धीरे से चंदनी की बांहें फैलाकर
ज्यों ही
छुआ उसने
जाने नदी ने क्या कहा उसके कानों में
खिलखिलाता हुआ वापस लौट चला

सबेरे दुनिया वालों ने
दूर आसमान में
उसे मुस्कुराते हुए देखा
कुछ खास बात थी आज
चांद की आभा में


चंचला तीस्ता भी बहती है
आज कुछ शरमाई सी
जाने क्या घुल गया
आज
उसकी जलधारा में…………



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