Thursday, 12 February 2015

रूह उस मकान की

बहुत ही छोटा सा था वह मकान
बस दो ही कमरे
एक बरामदा
छोटा सा आंगन
पर कभी जगह की कमी नहीं हुई हमें
:ह भाई बहनों के साथ
मां बाबा के प्यार दुलार की छांव
पले बढे हम
एक ही चटाई थी
एक ही केरोसिन की लैंप
सभी एक साथ बैठ कर पढ लेते थे
एक ही बिछावन पर
सुख की नींद सो भी लेते थे
चप्पे चप्पे बिखरा रहता था
हमारा बचपन
चप्पे चप्पे घूमती रहती थी
उस मकान की रूह

हर कोना अपना सा
हर दीवार सगी सी
हर चौखट हर दरवाजा भाई बंधु सरीखा
जाडे में धूप में हमारे संग
खेलती थी
बारिश की बूंद में भींगती भी थी
उस मकान की रूह

कभी नहीं लगा
ईंट गारे भी होंगे इसमें
कभी नहीं लगा
पत्थर और बालू भी होंगे इसमें
हमने हमेशा जीवंत ही देखा
हमेशा मुस्कुराते ही देखा उस मकान को
चूल्हे की मिट्टी सोंधी
या गोबर लिपे आंगन की मिट्टी गीली
सब हंसते बतियाते से लगते थे
वहां हम जो रहते थे
जी जान से प्यार करते थे
उसे अपना घर कहते थे…………

पर वह काल खंड ही था
समय के प्रवाह में
गुम हो गया कहीं
अपना प्यारा  घर
खो सा गया कहीं

ऊंचाई बढती गयी उसकी
ईंट गारों का ढेर होता गया वह
बांसों बल्लियों और सीमेंट से ढक तुप सा गया
ढूंढने पर भी वह खुलेपन का एहसास
नहीं मिलता
वह जीवन से भरी सुगंध
कहीं नहीं मिलती
अकबकाहट सी होती है
भाग आते हैं हम
तेज कदमों से चलकर
कहीं किसी भी कोने में उस मकान की

रूह नहीं मिलती……………………॥

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