मेघ रूई के फाहों से
तिर रहे आकाश में
यहां वहां
हवा के पंखों पर सवार होकर
उतने से मेघ
बार बार छुपाने की कोशिश में लगे हैं चांद को
जो आज पूरे निखार पर है
रौशनी से लक दक
हंसता है
आंख मिचौली सी खेलता है
मेघ के साथ…………
यादों की झांझरी हटाकर
आ जाते हैं कुछ ऐसे ही पल
ख्यालों में
आधी रात का वक्त
आंगन में चारपाई डालकर लेटी हूं
देख रही मुग्ध भाव से
आसमानी नजारा
चांद ठीक सर पर है
रौशनी झर झर बरसती हुई
बस एक झीनी मसहरी का आवरण है
लयबद्ध सी सरिता उजले प्रकाश की
पूरे बदन पर बह रही
पंचतत्व का बना शरीर
जैसे विलीन हो रहा
उस चुंबकीय खिंचाव में
अद्भुत रोमांच से सिहर रहा रोम रोम
मुझे अब भी याद है
वह रात ज्यों की त्यों…………
न अब वह आंगन है
न आंगन में सोने की व्यवस्था
न वह खुला खुला परिवेश है
न चांद का वैसा दीदार ही नसीब
सब कुछ
बदल गया
नहीं
बदला तो
अपना
मन
नहीं
घटी तो
मन में
हिलोरें लेती चाहना
बंधन
खोलकर भाग जाना चाहती हूं
बांहें
उठाये खिली चांदनी में
खुले
आसमान के नीचे
बेफिक्र
बेखौफ अनन्त की खोज में……………।
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