खिलौने जो कभी बच्चों के हाथ से
छूटते न थे
गोद से उतरते न थे
एक कोने में दुबके पडे हैं
खेलने वाले बडे जो हो गये
कभी ताखे पर रखती हूं
कभी शो केश में सजा देती हूं
कभी किसी मेज पर
कभी किसी ट्रंक में ही डाल देती हूं
जब जैसा मूड हुआ मेरा
भुगतते हैं बेचारे खिलौने
कभी कभी प्यार से सहेजती भी हूं
साफ सफाई करती ,संवारती
,दुलारती भी हूं
एक गुडिया
जो बेटी के साथ साथ रहती थी हरदम
बगल में तकिया लगाकर
गलबहियां डाले सोती और
सुख सपनों में खोयी होती थी
उसे नहलाते और सजाते संवारते
अक्सर भारी हो जाता है मन
याद आने लगते हैं गुजरे लम्हे
चांद सितारों जैसे रौशन
फूलों की खुशबू से भरे भरे
छोटे छोटे बच्चे
और उनकी तोतली बोली से आबाद लम्हे
एक ही गोल टेबल पर रखा है मैंने
सभी खिलौनों को
टेडी बियर
खरगोश कंगारू सांता हाथी और बंदर
ध्यान से देखती हूं तो लगता है
कोई भी बेजान नहीं है
सब कुछ न कुछ बोलते से लगते हैं
हाथी ने धक्का दिया किसी को
बंदर ने चिकोटी काटी है
भालू को सोने नहीं देता कोई
गुडिया रूठी सी लगती है
बचपन में पढी कहानी याद आ जाती है
मोची और बौने
कहीं किसी दिन जान आ जाए
इन खिलौनों में
बातें करने लगें ये
शिकायतें झगडे एक दूसरे से
तब क्या होगा
क्या करूंगी मैं
कैसे संभाल पाऊंगी इन्हें
हंसी आती आती है अपनी ही सोच पर
क्या पता किसी दिन घर आते ही
सारे खिलौने दौडकर लिपट जाएं मुझसे
पूछने लगें सवाल पर सवाल
क्यों गयी थी छोडकर
कहां गयी थी
क्या कहूंगी मैं ??
यही एक सवाल तो है जेहन में
जिसे पूछे जाने को तरस गए हैं हम
सूने सूने घर में………………॥
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