सिमट गए शामियाने
किरणों के
सात घोड़ों के पदचाप गुम हो
चले
संध्या आई
तो क्षितिज पर छुप कर बैठी
धुंध
झमक कर उतर आई
कण कण मे बिखर पसर गई
ऐसी गहरी श्यामल शीतल
कि हाथ को हाथ नहीं सूझता
कोई बत्ती कोई रौशनी
कारगर नहीं
जैसे साँस थम गई प्रकृति की
चुप्पी सी व्याप रही
कोई आहट कोई शोर नहीं
गाडियाँ धीरे धीरे चल रहीं
रात सहमी सहमी सी लग रही
सोचती हूँ
इस धुंध के गहन आवरण में
कौन से रहस्य बुनती है
प्रकृति
या कि
कौन से रहस्य सुलझाती है
कोई तो राज है .....
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