यह कहाँ आ गए हम
हर तरफ हरा भरा
जैसे हरे दुशाले ओढ़कर
प्रकृति खड़ी हो
धानी चूनर पीले फूल
वल्लरियों के गोटे
चहुं ओर हरियाली
जहाँ तक निगाह जाती है
क्षिति से क्षितिज तक...
याद करती हूँ अपने शहर को
जहाँ आसमान भी
साफ साफ अब नहीं दीखता
तारे तो विरले ही नजर आते हैं
सबेरे की रौशनी भी देर से
उतरती है
धूल धुआँ और प्रदूषण से
जी मिचलाता रहता है
सुबह शाम की लाली देखने को
आँखें तरस जाती हैं
शहर का रूप धरने से पहले
जब महज एक गाँव था
मिट्टी की सोंधी सुगंध मे
नहाया
ताजी हवा में साँस लेता और
खेतों खलिहानों से भरा पूरा
हरियाली ने यहाँ जन्म लिया
इसी गाँव की बेटी है यह
देखो कैसा खिला खिला
चेहरा है इसका
मुझे सामने पाकर
अपनी सहस्त्र बांहें फैलाए
प्रस्तुत हुई
जी में आता है मैं भी
दोनों बाजू फैलाए दौड़ पड़ूँ
समेट लूँ इसे फूल पत्तों समेत
चूम लूँ हर कली का मुख
भर दूँ आशीषों से इसका रोम
रोम
जी भर कर करूँ बातें
और सुनाऊँ दर्द शहर की माटी
का
कि तेरे जाने से कैसा
नीरस शुष्क उझण्ड लगता है
यहाँ का कोना कोना
हालांकि सबको पता है
तू जाना कहाँ चाहती थी
वह तो हम वाशिंदों ने
उजाड़ डाला तेरा बसेरा
काट डाले हरे भरे पेड़
बिखेर दिया पंछियों का घरौंदा
और हवा की ताजगी छीन ली
फिर भी तू ममतामयी है
माफ कर दिया हमारे अपराध
कभी शिकवे नहीं किए तूने
एक वचन दे
अब फिर से बनाएँ अगर
तेरा आशियाना
फिर से बोएँ पौधे
शहर के चप्पे चप्पे
और सींचें उन्हें अपना प्यार
देकर
तो ना नहीं करना
आ जाना
बिटिया रे !
शक्ल चाहे शहर का अख्तियार ले
यह गाँव तेरा मायका है
भूल न जाना ..........
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