ठीक यहाँ
जहां कच्ची पगडंडी
पक्के सड़क को छूती है
मेरे पीहर की सीमा है
यहाँ पाँव रखते ही महसूस होता
है
पीहर आ गई मैं .....
चार कदम बढ़ते ही गुलदाउदी
फूली फूली पसरी पसरी
राह देखती मिलती है
हर मौसम में
हर रंग की...
लताएं किसी न किसी बहाने
छू ही लेती हैं
आँचल की कोर....
दाएँ हाथ देवी का मंडप
लाल ध्वजाओं से घिरा
नीम की गहरी घनी छांव में ...
शीतल सुकून भरा
पवन का
नन्हा सा झोंका आकर
पूछ लेता है कुशल क्षेम
यहाँ शीश झुकाते ही
मिल जाता है आशीष दामन भर ॥
और यह पनघट
आह ।!
अनगिनत यादों की खुशबू से नहाया
घिरनी की घर्र घर्र
जैसे सुरों की लहरें ....
ये पुआल की ढ़ेरी
ये ढोरों के झुण्ड
ये आम के बगीचे
ये गन्नों के खेत
धूल की सोंधी महक
पुरसुकून हरियाली
खुला खुला वातावरण
यहीं कहीं
बचपन की सखियां होंगी
यहीं कहीं वो
खेल खिलौने होंगे
यहीं कहीं बाबा की हवेली होगी
यहीं कहीं गुड़िया का घरौंदा होगा
यह सारी माटी
यह सारा गाँव
पीहर है मेरा
मेरे हृदय में धड़कन बनकर समाया
रगों में जान बनकर घुला मिला
नहीं है इसकी कोई सीमा
मेरे अपने वजूद में ....
Wow! kitni sundar hai bhaiya kii sasural.
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