धारा मुझको नहीं बनाना
अलग थलग हो बहूं...
अपने तट की ,तटबंधों की
सीमा में ही रहूं.......
बूंद बनाकर रखना प्रभुवर
स्वार्थ विमुख रह पाऊं
सागर में मिल जाऊं
तो मैं भी सागर कहलाऊं....
हरी दूब पर रहूं कभी
बादल संग लहराउं
गिरुं अगर सीपी के मुख में
तो मोती बन जाऊं.....
bahut sundar
ReplyDelete