हल्की हल्की बूंदा बांदी
हो रही थी
फाहों में तिरते हुए बादल
मस्तानी हवा
मौसम खुशनुमा
न ठंढक न गरमी
मैंने धीरे से पूछा
कहीं घूमने चलें…?
पतिदेव ने भौं सिकोड कर
देखा
बोले कुछ नहीं
नजरों से झांकता सवाल
कि मिजाज ठीक तो है…
चेहरे पर पसरा जबाब भी
कि हर्गिज नहीं……
बेटे के पास आई
कहीं घूमने चलें…?
उसने मोबाईल से निगाह
हटाया तक नहीं
उंगली हिलाकर ना का इशारा
कर दिया
मन मेरा हिलोरें ले रहा
अब क्या करूं
बेटी के कमरे में गई
किसी किताब के पन्नों में
खोई हुई उसने निगाह उठा
कर देखा
ये किताब पढना मां
बडी अच्छी कहानी है
मैंने जबाब जानते हुए भी
पूछा
कहीं चलें
मौसम बडा प्यारा है
उसने भी उतने ही प्यार से
कहा
कहां मां…
अभी तेज बारिश होने लगेगी
भीग जायेंगे
घर में रहो ना
बालकनी में बैठो अच्छा
लगेगा………
मैं छत्त पर चली आयी
तुम्हें फोन लगाया
मौसम बहुत नशीला हो रहा
कहीं घूमने चलें?
तुमने कहा
चलो………………
खुश हो गई मैं
आंखें बंद करते ही महसूस
हुआ
आ गये हो तुम
हाथ थाम कर चल दिये हम
सोचती हूं तुम जरा भी
नहीं बदले
पूछा भी नहीं कि कहां
जाना है
सोचा भी नहीं कि
बारिश आ गयी तो…
किसी का मन रखना कोई सीखे
तुमसे
टहल रही हूं ठंढी हवा में
मन गुजरे लम्हों में डूबा
हुआ
देखो यही है वह जगह
जहां छोटे छोटे पेडों को
लताओं ने
ऐसे ओढ रखा था
कि झोपडी सी बन गई थी
तुमने कहा था नीचे खडी हो
तस्वीर उतार लूं
पीले पीले फूलों से ढकी
वो झोपडी
बस रही है अब तक मन में
यहां देखो
यही वट का विशाल पेड है
जिसे छूकर ही आगे बढते थे
हम
छूकर मन ही मन कहते थे
कितने सुंदर हो तुम
तुमने जिन नन्हीं लताओं
को
सहारा दिया था कभी
अभी वे ही तुम्हारी
बांहें बनकर
थामे हुये हैं तुम्हें
इन्सानी रिश्तों की तरह
जिस बचपन को इन्सान उंगली
पकडकर
चलना सिखलाता है
वही सहारा बन जाता है
आगे चलकर
देखो न दोस्त
यहीं रुककर हम देखा करते
थे
उस दीवार के पार से धीरे
धीरे
सूरज का ऊपर उठना
हाथ जोडकर नमस्कार करते
थे हम
किसने सिखाया था पता नहीं
पर लाल गुलाबी किरणों को
देखकर ही मन खिल उठता था
और इन्हीं पत्तों में
छुपी कोयल
इतना जोर जोर से कुहुकती
थी
कि उसे ढूंढने का हर दिन
प्रयास करते थे हम
याद है न
यहां मिट्टी का अंबार लगा
रहता था
हर दिन उस टीले नुमा ढेर
पर
चढती थी मैं
हर दिन मना करते थे तुम
संभल के………
पांव न डगमगाये कहीं
ख्वाबों से जगाने को
आ ही गई बारिश
छज्जे की ओट में खडी हूं
ख्यालों में तुम्हारा हाथ
थामे
पानी की बूंदें भिंगा रही
हमें
गुदगुदा रही शायद
तभी तो मुस्कुरा रहे हैं
हम
वक्त का लम्बा फासला मिटा
नहीं सका
यादों की तहरीर
मलिन भी नहीं हुई तासीर
उनकी
ज्यों की त्यों रची हैं
बसी हैं
जेहन में
तुमने कहा भी था
कभी भी पुकारना
कहीं भी रहूंगा आ जाऊंगा
दूरियां मायने
नहीं रखतीं
आ भी जाते हो तुम
मुझे अकेला पाकर
बस पुकारने की देर होती
है
शब्दों में बांधूं तो
बांधूं कैसे
रिश्तों की हर परिभाषा से
परे दोस्त होते हैं
खुदा की नेमत ही
होती है दोस्ती किसी की
दोस्त तो बस दोस्त होते
हैं……………
Shaaandar.
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