Tuesday, 18 November 2014

भोर की किरणें

सुबह का वक्त
नव कोंपलों से सजी प्रकृति   
ओस में भीगे पत्ते
कोमलता सर्वत्र व्याप्त
गुनगुनी सुहानी धूप
कुछ गाती सी हवा
और सुगंध लुटाती दिशाएं
अजब सा हल्कापन मन मिजाज में महसूसते
खोए खोये से हम
चले जा रहे…

अभी किरणें पूरी तरह
उतरी नहीं जमीं पर
सिरीश के फूल इस कदर बिछे हुये हैं
मानों कोई नव वधू
अभी अभी गुजरी हो इधर से
उसके गजरे के फूल बिखरते गये हों
उनींदे अलसाये उसी की तरह……

किसी किसी पेड को लताओं ने
इस तरह घेरा हुआ है
मानों घूंघट ओढा रखा हो
और उनपर हल्के गुलाबी फूलों के गुच्छे
मानों दुल्हन की ओढनी में टंके हुये फूल

धीरे धीरे पलकें खोलती फिजायें
धीरे धीरे जागती दिशायें
हवा भी आहिस्ते से चलती है
एक एक कली
एक एक फूल को जगाती सी
जैसे मां जगाती है बच्चों को धीरे से छूकर
सहलाकर पुचकारकर……

धीमे धीमे उठता हुआ सूरज
और समूह में बैठे
धूप तापते पंछी
अब उडेंगे हर दिशा में
दानों की खोज में
उन्हें पता है कोई भर देता है
फलियों में दाने चुपके से
हर रोज तभी
जब सोई होती है सारी दुनिया
और जगा देता है उन्हें अहले सुबह
कि जागो
आई हैं जगाने सुनहरी भोर की किरणें………



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