गलती तुम्हारी थी
मैं रूठ गयी
तुमने मनाया भी नहीं
रूठी रूठी मैं अनबोली
इन्तजार करती रही
तुम्हारे मनाने का
तुम्हारे संसार को
सजाती रही सपनों से
हमेशा की तरह
मुझे लगता रहा
यूं रूठकर मैं जीत गई
तुम्हें लगा
तुम जीते मुझे न मनाकर
हर बार की तरह
जानते हो क्या होता है ऐसे
हमारे तुम्हारे अहं का धुंधलका
हमारे कई कई दिनों के
खुशनुमा पलों को रौशनी से
नाबाद रखता है
खूबसूरत पल
आते और झरोखे से झांककर
लौट जाते हैं
मैंने देखा है उन्हें
यूं लौटते द्वार से
कब निकलेंगे हम
अपने अहं के अन्धकार से……
No comments:
Post a Comment