अतिथि !
तुम जब आए
घर आंगन चौबारे सब महक उठे
खिल गईं अचानक
सब कलियाँ मेरे उपवन की
भर गए कोने कोने अजब सुवास से..
वातायन से आईं
कुछ किरणें छुपकर
एक आभा सी बिखर गई चप्पे चप्पे....
जाने कौन दिशा से आई
पुरवाई
झूम उठे सब झूमर
चिलमन लहराई........
दर दीवार जिसे भी
छूकर
हमने देखा
एक स्पन्दन, एक तरन्नुम था सब में
ऐसा क्या जादू-जैसा तुम
लाए थे
सब कुछ जैसे भर उठा था जीवन से...
आंगन में भी आहट थी
उन चिड़ियों की
नजर नहीं पड़ती अपनी
अक्सर जिनपर..
दूर कहीं से कोयल के भी गाने का
स्वर घोल रहा था
कानों में रस मधुर निरंतर ...
जब से मैंने जाना था
तुम आओगे
रोम रोम बेताब तो थे ही,
पर अतिथि..!
आना तेरा जैसे कोई सपना हो
नींद नहीं खुल रही
हमारी अभी तलक..
पलकें खोल निहारूँ
बिल्कुल चाह नहीं
मन भरा हुआ रोमांच से मेरा
अभी तलक.....
न कुछ फूटे बोल हमारे
मुख से ही
ना ही तुमको देख सके नजर भरकर
मन की कितनी बातें रह गईं
मन में ही
रह गए कितने अरमां दिल में ही दबकर॥
जाते जाते अतिथि !
कुछ सुनते जाओ
इन आँखों में
कुछ सपने भी बुनते जाओ...
जिस रूप के नयन मेरे
दीवाने हो गए
उसी रूप की छाँव में मैं रहना चाहूँ
बस जाए कोई सपना जब इन आंखों में
हो जाए साकार मैं बस इतना चाहूं………
....
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