Thursday, 24 October 2013

सांझ की आहट

खिड्की से आ रही
सांझ की आहट
पास गई कि खोल दूं पल्ले
सोचती हूं
कितने कितने पल्ले लगा लिए हमने
काठ के फ्रेम में
शीशे का पल्ला , मिरर ग्लासेस
पास जाओ तो अपना ही
चेहरा दिखता है
नहीं दिखता बाहर का नजारा
फिर जाली का पल्ला है
कीट पतंगे तो क्या
चांद की रौशनी भी चाहे तो
सहमकर ही आयेगी भीतर…
इतने पर भी मन नहीं भरा
तो डाल दिए गहरे रंग के परदे
दीवारों की रंगत से मिलते जुलते
और कैद हो गई
इन्हीं दीवारों में अपनी कल्पना
बंध-से गए आकांक्षाओं के पर …
क्यों होते जा रहे हम
इतने बंधे बंधे
कहां खो गया वो खुलापन
पांव तले हरी भरी धरती
और ऊपर खुला आसमान…
सब कुछ सिमट गए चहारदीवारी में
एक झटके में सरका देती हूं परदे
खोल देती हूं जाली के पल्ले
शीशे वाले भी……
मुस्कुरा देता है चांद आसमान से
निहारकर ही
और बिखेर देता है रौशनी
घर के भीतर चप्पे चप्पे पर
ख्याल आता है
उम्र के सांझ की आहट भी
आने लगी है अब तो…
कौन सी खिड्की खोल दूं
कि दिख पडे सामने की राह
कहां तक ? कितनी दूर तक ?
अब तो इन्हीं मिरर ग्लासेस की तरह
दिखाने लगा है वक्त
हमें हमारा ही चेहरा
बीते कल की एक एक छाया
प्रतिछाया बनकर
आने जाने लगी है मानस पटल पर…॥


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