दोराहे पर खडा आदमी सोचता है
किधर जाए
कौन दिशा
नहीं जानता किधर है मंजिल उसकी
किधर है सही रास्ता
किससे पूछे कौन देगा सही मशवरा
उलझन में घिरा
ऊहापोह में पडा
पुकारता है दिशाओं को
पूछता है चांद सूरज सितारों से
कहां मिलता है कोई जबाब …
पर ज्यों ही
मायूस होकर
झांकता है अपने अंतर्मन में
मूंद कर आंखें ,
डूब कर आत्मा की गहराई में
पूछता है जबाब
उसी पल पा जाता है
उलझनों से निजात
उसका भवितव्य
थाम कर उंगली ले जाता है
उस ओर जहां उसकी मंजिल
उसका इंतजार कर रही होती है
और यही सच है
दोराहे पर खडा आदमी
न भटके उलझनों के जाल में
विचलित न हो ऐसे चलते चलते राह में
होना वही है जो चाहता है
वह सर्व शक्तिमान
जो रचता रहता है पल पल का विधान्………।
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