फिर आज मेरे मन की वीणा
कुछ नए नए सुर रचती है
कहती है, जीवन सरिता है
निर्बाध निरंतर बहती है....
फिर
आज मेरे मन की वीणा....
कहती है, घोर अंधेरे से
ही, फूटके किरणें आती हैं
घनघोर निराशा के घन से
आशा की बूंद बरसती हैं..
उस सुख दुख रचने वाले ने
जब डोर
हमारी थामी है,
फिर काहे
मन घबराता है
और काहे आंख छलकती है...
फिर
आज मेरे मन की वीणा....
सारा जग बैरी हो जाए
तब भी कोई अपना होता है
पलकों से लिपटे हों मोती,
आंखों में सपना होता है...
उस दिवस रैन के मालिक ने
दिन रात बराबर बांटा है
फिर काहे मन घबराता है
और काहे आँख छलकती है...
फिर आज मेरे मन की वीणा......
bahut sundar.
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