Wednesday 18 February 2015

पन्ने आपके

मेरी जिन्दगी की किताब में
कुछ पन्ने
आपके नाम के
आपके प्यार में रंगे
भीनी भीनी खुशबू में सने

पलटकर देखूं जब भी
मुस्कुराते
कुछ कहते से लगते
मद्धिम आवाज में मेरा नाम लेकर
पास बुलाते

जब जब देखूं अक्षर अक्षर
हाथ बढाते
छूते मुझको प्यार जताते

मेरी जिन्दगी की किताब के
कई पन्ने
आपके नाम के

इन पन्नों में देखे कोई
कैसे उड्ते पंख लगाकर
पल जीवन के
इन पन्नों में देखे कोई
कैसे बन जाते हैं सुंदर
पल जीवन के

ये ही पन्ने
सच बोलूं तो
मर्म खोलते इस किताब के
मेरी जिन्दगी की किताब में
कुछ पन्ने आपके…………………



Saturday 14 February 2015

आंगन के आकाश में


ठीक ठीक याद है
चांद हमारे आंगन के आकाश में ही
रहता था
पिछवाडे के बडे बरगद के पीछे ही
कहीं घर था उसका
धीरे धीरे पेड पर चढ्कर तब
आता था हमारे आंगन में
पूरी रात खेलता था तारों संग

हां मुझे याद है
किसी थाली में पानी भरकर
हम उसे नीचे भी बुला लेते थे
आराम से आ जाता था वो

अब क्या हो गया
चांद दूर हो गया
या आकाश ही ऊंचा हो गया
उसने अपना घर बदल लिया शायद

तब खेत खलिहान पसंद थे उसे
बरसाता रहता था जी भर चांदनी सब पर
हंसता रहता था खुले गगन में
बादलों संग डोलता फिरता था
लुका छिपी के खेल खेलता
कितना सुंदर लगता था

अब रूठा रूठा सा रहता है
सहमा सहमा
पांच मंजिले पर चढ कर छत पर जाती हूं
तब ही देख पाती हूं
उसकी चमक भी कम ही हो गई लगती है

सुना है पूनम की रात
उतरता है
चांदनी की सीढियों से
आता है समंदर की बावरी लहरों से मिलने

सोचा है छुपकर बैठूं वहीं कहीं
पूछूं हाथ पकडकर
कौन से जतन करूं
कि आए फिर से मेरे आंगन में

मेरे आंगन के आकाश में……………

फिर आना

कैसे कह सकते हो
वह सब समझ गए हो तुम
जो मैंने कहा
या कहना चाहा

कहने की कोशिश में पलकें
उठाती गिराती रही
सांसें बेतरतीब हुईं
बोल जो फूटे नहीं मुख से  
वह भी तो सुनना था

कैसे कह सकते हो
सुन लिया तुमने वह सब कुछ
जो भीतर ही घुमडते रहे
शब्दों की खोज में

कुछ शब्द जो अस्फुट से थे
जुबां पर आये ही नहीं
उनके मायने
और भी बहुत कुछ
जो पिरोये हुए थे
उन शब्दों के आर पार
कैसे कह सकते हो जान लिया तुमने

कभी देखूं नजर भरकर
तभी जानूंगी
एक बार फिर आना……………॥


Thursday 12 February 2015

रूह उस मकान की

बहुत ही छोटा सा था वह मकान
बस दो ही कमरे
एक बरामदा
छोटा सा आंगन
पर कभी जगह की कमी नहीं हुई हमें
:ह भाई बहनों के साथ
मां बाबा के प्यार दुलार की छांव
पले बढे हम
एक ही चटाई थी
एक ही केरोसिन की लैंप
सभी एक साथ बैठ कर पढ लेते थे
एक ही बिछावन पर
सुख की नींद सो भी लेते थे
चप्पे चप्पे बिखरा रहता था
हमारा बचपन
चप्पे चप्पे घूमती रहती थी
उस मकान की रूह

हर कोना अपना सा
हर दीवार सगी सी
हर चौखट हर दरवाजा भाई बंधु सरीखा
जाडे में धूप में हमारे संग
खेलती थी
बारिश की बूंद में भींगती भी थी
उस मकान की रूह

कभी नहीं लगा
ईंट गारे भी होंगे इसमें
कभी नहीं लगा
पत्थर और बालू भी होंगे इसमें
हमने हमेशा जीवंत ही देखा
हमेशा मुस्कुराते ही देखा उस मकान को
चूल्हे की मिट्टी सोंधी
या गोबर लिपे आंगन की मिट्टी गीली
सब हंसते बतियाते से लगते थे
वहां हम जो रहते थे
जी जान से प्यार करते थे
उसे अपना घर कहते थे…………

पर वह काल खंड ही था
समय के प्रवाह में
गुम हो गया कहीं
अपना प्यारा  घर
खो सा गया कहीं

ऊंचाई बढती गयी उसकी
ईंट गारों का ढेर होता गया वह
बांसों बल्लियों और सीमेंट से ढक तुप सा गया
ढूंढने पर भी वह खुलेपन का एहसास
नहीं मिलता
वह जीवन से भरी सुगंध
कहीं नहीं मिलती
अकबकाहट सी होती है
भाग आते हैं हम
तेज कदमों से चलकर
कहीं किसी भी कोने में उस मकान की

रूह नहीं मिलती……………………॥

Saturday 7 February 2015

धीरे धीरे

धीरे धीरे चलकर कोई आता है
धीरे से खोलकर
कपाट मेरे दिल के
आहिस्ते कदम धरकर
समा जाता है…………………
मुग्ध मेरी पलकें
खुलती हैं धीरे धीरे
सांसों में सुगंध सी
घुलती है धीरे धीरे
थपथपा कर मेरे गालों को
चला जाता है………………
धीरे से ही छूता है
हाथों को उंगलियों से
धीरे से चूमकर पलकों को
अधरों से
मुझको मेरे मन को
चुरा ले जाता है
धीरे धीरे चलकर
आहिस्ते कदम धरकर

कोई आता है…………………॥

संवाद

कई कई संवाद
जो अबोले ही रहे
न मैं बोल पाई
न तुमने ही बोलने की जरूरत समझी
लेकिन गूंजते रहते हैं जो
ह्र्दय के आकाश में
जिनकी प्रतिध्वनि छूती रहती है
मन के तार
लगातार……………
मन ही मन बोलकर
खोलती रहती हूं अपना ही राज
तुम्हारे सामने
लगता है समझ भी रहे हो तुम
मेरे इस मौन संवाद को
मुझे तो प्रत्युत्तर भी मिल जाया करता है
अक्सर…………
सपनों की ओट में पलते ये पल
कभी कहते हैं
थाम कर मेरे हाथ को
कलेजे से लगाया क्यों बोलो तो
घुमाकर चेहरा
टिकाकर निगाहें कहीं और
मुस्कुराया क्यों बोलो तो
ध्यान से पढते हुए मेरी
हथेली की लकीरों को
क्या कहने को विकल हुए होठ तुम्हारे
बोलो कभी पूछा मैंने
क्यों पूछती भला
मैं तो सुनती रही तुम्हारे ह्र्दय के
संवाद को
हर बार सांसों में घुलते
मधुमास की सुगंध  के साथ
हर बार महसूसती रही
पिघलकर मिलती हुई रूह को
जिसके लिये कोई बंदिश कोई रुकावट नहीं
किसी भी तरह की
जो आजाद है
अबोले संवाद की तरह
सुन लो जहां तक सुन सको
चुन लो सुख सपनों की कलियां

जितनी चुन सको……………………

Sunday 1 February 2015

आने से



आने से मना किया था
फिर क्यों हुए उदास
आऊं कि न आऊं मैं
रहती हूं तेरे पास………

अब मूंद के पलकों को जरा
रक्खो तो दिल पे हाथ
देखो तो घुल रही है तेरी
सांसों में किसकी सांस…

खुद ही मना किया था
खुद ही हुए उदास……

आऊं कि न आऊं मैं
रहती हूं आस पास
खुश रहा करो हमेशा
मत हुआ करो उदास………।


मौसम है कुछ कहने का

मौसम है कुछ कहने का
दाएं बाएं बैठ निठल्ले
गुपचुप बातें करने का
मौसम है कुछ कहने का

एक हाथ में हाथ तुम्हारा
कदम दर कदम साथ तुम्हारा
दूर कहीं तक धीरे धीरे
यूं ही चलते रहने का
मौसम है कुछ कहने का   

कुहरे घोर घनेरे छाए
बादल ज्यों धरती पर आए
इन कुहरों के साए साए
बस अलमस्त विचरने का

मौसम है कुछ कहने का……………