Saturday 18 October 2014

अशोक के पेड




बी एस एफ कैम्पस में
अशोक के हजारों पेड हैं
करीने से रोपे हुए
सतर्क सिपाही की तरह तनकर खडे

इन्हें हमारे देश के पहरेदारों ने
प्यार से पाला है
कडे अनुशासन में रहना सिखाया है

हवा के हल्के झोंके इन्हें तंग नहीं करते
रोज देखती हूं इन्हें
ज्यों ज्यों ऊंचे उठते जाते हैं
इनका कद गरिमामय होता जाता है
इन्हें छांट संवार कर
सिपाही बना दिया गया है
सीना ताने हुए
सर ऊंचा किए हुए
प्रक्रति के मुस्तैद सिपाही……………

पूरा कैम्पस शांत सभ्य प्रतीत होता है
हरीतिमा से भरपूर
अनुशासित
फूलों फलों से आच्छादित

रास्ते के दोनों तरफ कतार से खडे हैं
मुस्कुराकर अभिवादन करते हैं ये
जब
इनके बीच से होकर गुजरती है
सैनिकों की गाडियां


कभी किसी समारोह में
बिगुल और ड्रम से ताल में ताल
मिलाकर थिरकते भी हैं ये पेड
कभी वातावरण की गम्भीरता को
हवा में सूंघकर
सांस रोके  पदचापों की आहट
लेते रहते हैं

उस दिन पास के जंगल में
हुई थी मुठभेड
गोलियों की आवाज से थर्रा उठी थी दिशायें
चौकन्ने ये अशोक के पेड
मानों उचक उचक कर देख रहे हों
चहारदीवारी के पार
देर रात तक जागते रहे सारे के सारे
सिपाहियों की बाट जोहते

और जब  बहादुर सिपाहियों को लेकर
लौटी गाडियां
झूम झूम कर मानों दे रहे थे शाबाशियां
रोम रोम से  जैसे
फख्र महसूस करते हों

यूं एकसार हो गये हैं ये अशोक के पेड
कैम्पस की दिनचर्या से
सिपाहियों की मनोदशा से
आखिर सहचर सगे आत्मीय यही तो हैं उनके
जो देश के कोने कोने से आये हैं
कर्तव्य निभाने
जन मानस को भय मुक्त वातावरण का
एहसास कराने…………।



बेटी कहती है

तिल तिल ऊंची होती हुई बेटी
पास आती है
गले से लिपट कर मानों कहती है
रोक लो मां
मेरे बचपन को
कि बना रहे मेरा ठुनकना
बात बात पर जिद्द करना , मचलना
जाने मत दो मेरे अल्हडपन को
कि जानना समझना नहीं है मुझे
दुनिया को, दुनियादारी को

जाना नहीं हैं मुझे
तुमसे दूर कहीं भी
किसी और देश कोई और गांव

छुपकर सुनती है बातें
व्याहे जाने की
और धमक कर खडी होती है सामने
मत करो मां ऐसी बातें
अभी तो सुलझते नहीं मुझसे
मेरे केश ही
कैसे सुलझाऊंगी
जीवन की उलझनें
अभी तो सीखा भी नहीं संभल कर
पांव रखना जमीन पर
कैसे संभालूंगी बडी बडी जिम्मेदारियां मां

मां क्या कहे
छुपा कर भर भर आती आंख को
पोंछकर उंगली के पोर से
टपकते लोर को
मुस्कुराती है
दुलारकर समझाती है
मेरी बच्ची

यही है रीत दुनिया की…………………