Friday 25 January 2013

भूल न जाना


यह कहाँ आ गए हम
हर तरफ हरा भरा
जैसे हरे दुशाले ओढ़कर
प्रकृति खड़ी हो
धानी चूनर पीले फूल
वल्लरियों के गोटे
चहुं ओर हरियाली
जहाँ तक निगाह जाती है
क्षिति से क्षितिज तक...

याद करती हूँ अपने शहर को
जहाँ आसमान भी
साफ साफ अब नहीं दीखता
तारे तो विरले ही नजर आते हैं
सबेरे की रौशनी भी देर से उतरती है
धूल धुआँ और प्रदूषण से
जी मिचलाता रहता है
सुबह शाम की लाली देखने को
आँखें तरस जाती हैं

शहर का रूप धरने से पहले  
जब महज एक गाँव था
मिट्टी की सोंधी सुगंध मे नहाया
ताजी हवा में साँस लेता और
खेतों खलिहानों से भरा पूरा

हरियाली ने यहाँ जन्म लिया
इसी गाँव की बेटी है यह
देखो कैसा खिला खिला
चेहरा है इसका
मुझे सामने पाकर
अपनी सहस्त्र बांहें फैलाए प्रस्तुत हुई

जी में आता है मैं भी
दोनों बाजू फैलाए दौड़ पड़ूँ
समेट लूँ इसे फूल पत्तों समेत
चूम लूँ हर कली का मुख
भर दूँ आशीषों से इसका रोम रोम
जी भर कर करूँ बातें
और सुनाऊँ दर्द शहर की माटी का
कि तेरे  जाने से कैसा
नीरस शुष्क उझण्ड लगता है
यहाँ का कोना कोना

हालांकि सबको पता है
तू जाना कहाँ चाहती थी
वह तो हम वाशिंदों ने
उजाड़ डाला तेरा बसेरा
काट डाले हरे भरे पेड़
बिखेर दिया पंछियों का घरौंदा
और हवा की ताजगी छीन ली

फिर भी तू ममतामयी है
माफ कर दिया हमारे अपराध
कभी शिकवे नहीं किए तूने

एक वचन दे   
अब फिर से बनाएँ अगर
तेरा आशियाना
फिर से बोएँ पौधे
शहर के चप्पे चप्पे 
और सींचें उन्हें अपना प्यार देकर
तो ना नहीं करना
आ जाना
बिटिया रे !
शक्ल चाहे शहर का अख्तियार ले  
यह गाँव तेरा मायका है
भूल न जाना .......... 

Thursday 24 January 2013

रात भर


ठंढी उजियारी रात    
आधी जागी आधी सोयी सी हूँ
पार झरोखे के
वह आया  
रश्मियाँ बिखेरता
मंद मंद मुस्काता

उनींदी पलकों ने हौले से  पूछा
कौन हो तुम...
इतनी शीतल छुअन है तुम्हारी  
नरम नरम उंगलियों से
लटें संवारते
और दुलराते से

मद्धिम आवाज में बोला
पहचाना नहीं ?
मैं हूँ –-
जान रे !
तेरी अपनी ही छाया
तुम्हारी धड़कनों में समाया
तुम ही तो कहती हो
कि साँसों में भी घुला
हुआ हूँ मैं
और  
भूल पाती नहीं तुम मुझे
एक पल को भी
कि साँस लेना भी कोई भूलता है क्या

कसक सी हुई
उठ बैठी
हथेलियों पर चेहरा टिकाया
और देखती रही अपलक
मंत्र मुग्ध सी

वाकई तू जान है मेरी  
जनम जनम का नाता है तुझसे
छुटपन की याद है
आ जाता था मुंडेर पर
कभी आँगन के आसमान में
ऐसा ही गोल मोल
ऐसा ही प्यारा

उस बगीचे के पार
अमराइयों में
छुप्पा छुप्पी के खेलों में
तू भी शरीक होता था   
मौलश्री की लताओं की ओट में
कभी कचनार के फूल पत्तों में
छुप जाता था   
झील के किनारे तो अद्भुत
लगता था  तू
ऊपर दूर आसमान में भी
नीचे अतल गहराइओ में भी
न जाने कहां से सीखी तूने
जादूगरी यह ...

सुन !
एक बात पूछती हूँ  
भीतर बुला लूँ तो आ जाओगे
या हँसकर कहोगे --
मैं तो लंबी राह का राही हूँ
नहीं बांध सकता कोई
प्रेम पाश मुझे  
नहीं रोक सकता कोई डगर मेरी
कि बाँटना है मुझे
हर आँख में सपने सलोने
हर घर हर आँगन में
रौशनी की सौगात
रात भर ..............





Sunday 20 January 2013

मनाऊँ कैसे


बिखर रहे मेरे शब्द
जैसे बिखर जाते हैं
पानी पर
अंजुरी भर फूल
कोई इधर कोई उधर
अलग अलग दिशा
सब अलग अलग राह  

कितना सहेज कर
रखना होता है उन्हें
धागे में पिरोकर
कि साथ साथ रह सकें
बन सकें
किसी के गले का हार

ऐसे ही समेट कर रखना होता है
शब्दों को
भावों के धागे में गूँथकर
वर्ण अलंकार से सजाकर
कि रच सके कोई कविता
हू ब हू निकलकर
हृदय के साज से
छू सके हरेक दिल के तार  

पर आज न जाने क्यों
थमते नहीं शब्द अंजुरी में
गुंथते  नहीं भावों के धागे में
रचती नहीं कोई कविता

चंचल विचारों की आंधी
बिखेर देती है सबको
इधर उधर
उड़ा ले जाती है
दिग दिगंतों के पार

कोई बताए
उन्हें फिर से बुलाऊं कैसे
रूठ गयी है कलम
तो मनाऊं कैसे.........



Saturday 19 January 2013

सीमा


ठीक यहाँ
जहां कच्ची पगडंडी
पक्के सड़क को छूती है
मेरे पीहर की सीमा है
यहाँ पाँव रखते ही महसूस होता है
पीहर आ गई मैं .....

चार कदम बढ़ते ही गुलदाउदी
फूली फूली पसरी पसरी
राह देखती मिलती है
हर मौसम में
हर रंग की...

लताएं किसी न किसी बहाने
छू ही लेती हैं
आँचल की कोर....

दाएँ हाथ देवी का मंडप
लाल ध्वजाओं से घिरा
नीम की गहरी घनी छांव में ...
शीतल सुकून भरा
पवन का
नन्हा सा झोंका आकर
पूछ लेता है कुशल क्षेम
यहाँ शीश झुकाते ही  
मिल जाता है आशीष दामन भर ॥

और यह पनघट
आह ।!
अनगिनत यादों की खुशबू से नहाया
घिरनी की घर्र घर्र
जैसे सुरों की लहरें ....

ये पुआल की ढ़ेरी
ये ढोरों के झुण्ड
ये आम के बगीचे
ये गन्नों के खेत
धूल की सोंधी महक
पुरसुकून हरियाली
खुला खुला वातावरण

यहीं कहीं
बचपन की सखियां होंगी
यहीं कहीं वो
खेल खिलौने होंगे
यहीं कहीं बाबा की हवेली होगी
यहीं कहीं गुड़िया का घरौंदा होगा   

यह सारी माटी
यह सारा गाँव  
पीहर है मेरा
मेरे हृदय में धड़कन बनकर समाया
रगों में जान बनकर घुला मिला
नहीं है इसकी कोई सीमा
मेरे अपने वजूद में ....


Friday 11 January 2013

अंत्याक्षरी


समय बिताने के लिए 
करना है कुछ काम 
शुरू करो अंत्याक्षरी 
लेकर हरि का नाम

याद आता है 

बचपन का अलमस्त जमाना 
और अंत्याक्षरी की मौज मस्ती 

शब्द के अंतिम वर्ण से शुरू नया शब्द ...
गीत के बोल ,
कविता की पंक्तियाँ
शेरो शायरी गजल कुछ भी ...
एक अनवरत मनोरंजन

सोचती हूँ 
यह अंदाज महज खेल ही नहीं
इससे अलग कुछ और भी है

दिवस की उम्र तो बस
आठ पहरों की होती है
सुरमई किरणें 
नील गगन के चप्पे चप्पे 
जीवन के रंग भरती 
रहती है....
प्रकृति हर रूप में 
हर वक्त जीवन के राग 
गुनगुनाती रहती है 
चलता रहता है 
यह सिलसिला... 

साँझ का सबेरे के साथ  
सुगंध का पवन के साथ 
अंधेरे का उजाले के साथ 

  
लहरों का समंदर के साथ  
धूप का छाँव के साथ
आँसू का मुस्कान के साथ 

धरा और क्षितिज के
बांहों के घेरे में 
खेलता रहता है कण कण
एक अंतहीन  अंत्याक्षरी ...