Tuesday 30 October 2012

अलार्म घड़ी


ट्रिन ट्रिन ट्रिन्न......
उंह ,
कितनी कर्कश लगती है तेरी आवाज
जैसे जबरदस्ती कान पकड़कर उठा रही हो
उठो उठो उठो....

पर कितनी जरूरत है तुम्हारी
तुम न रहो तो कोई काम
समय से नहीं कर पाउं

याद आता है जगाना मां का
हर सुबह
पास बैठ कर धीरे धीरे
सहलाती रहती थी बालों को
पुचकारती ,पुकारती
उठो...जागो , खोलो आंखें
भोर हो गई...

धीमी धीमी आवाज
कानों में शनै: शनै: आती
रस जैसा कुछ घोल जाती
कुनमुना कर जागते हम
लाड़ दुलार दिखाते
जैसे उठ कर एहसान कर रहे माँ पर
सोचती हूं .....
न जगाया करती
तो कभी स्कूल नहीं जा पाते हम
मॉर्निंग स्कूल तो हरगिज नहीं

डायरी के पन्नों में हम लिखते
आज कोयल की आवाज ने जगाया
आज ठंढी हवा ने
आज मुर्गे की बांग से नींद खुली
लेकिन सच यह होता
कि हर दिन मां की मीठी आवाज
और कुछ गुनगुनाने के स्वर ही
जगाते नींद से

शायद भजन के स्वर
वह अक्सर गातीं
हरि ॐ तत्सत हरि ॐ तत्सत....
कितना मधुर गाती है मेरी माँ
अभी भी कानों में है
वह जाना पहचाना स्वर...

तब  जागने के क्रम में
हल्की हल्की नींद के झोंके कई बार आते
लगता हम उठ कर तैयार हो रहे
बैग सजा रहे
जूते पहन रहे....
पर फिर मां की आवाज आती
उठो...उठो...देर हो रही
हम हड्बड़ा कर उठते...

और यह आज का दिन
हर सुबह जगाने का काम करती
यह अलार्म घड़ी
इस अकेलेपन की साथी
कैसे कह दूं कि आवाज इसकी कर्कश है
मीठे सपनों में होती हूं तब
बुरा जरूर लगता है जागना
पर कभी जब
भयावना कोई सपना टूटता है
इसकी आवाज से,
तो राहत मिलती है....

ट्रिन ट्रिन ट्रिन्न...
अरे ! अभी तक सोई ही हूं...
लगातार बज रहा अलार्म
पापा ने जान बूझ कर ऐसी घड़ी दी है मुझे
इसका अलार्म खुद ब खुद बंद नहीं होता
जब तक उठ कर स्विच ऑफ न करूं

गुड मॉर्निंग...
सबसे पहले यह घड़ी ही कहती है मुझे
हैव ए गुड डे टू....
थैंक यू मेरी प्यारी घड़ी
एकमात्र तुम ही तो हो मेरी सहेली
यहां, इस  परदेश में....
तुम्हें मैं मां की याद की तरह ही सहेज कर
रखूंगी हमेशा हमेशा...
वादा करती हूं....

Sunday 14 October 2012

फिर आज मेरे मन की वीणा


फिर आज मेरे मन की वीणा  
कुछ नए नए सुर रचती है
कहती है, जीवन सरिता है
निर्बाध निरंतर बहती है....

      फिर आज मेरे मन की वीणा....

कहती है, घोर अंधेरे से
ही, फूटके किरणें आती हैं
घनघोर निराशा के घन से
आशा की बूंद बरसती हैं..

    उस सुख दुख रचने वाले ने
    जब डोर हमारी थामी है,
    फिर काहे मन घबराता है
    और काहे आंख छलकती है...

       फिर आज मेरे मन की वीणा....

सारा जग बैरी हो जाए
तब भी कोई अपना होता है
पलकों से लिपटे हों मोती,
आंखों में सपना होता है...

   उस दिवस रैन के मालिक ने
   दिन रात बराबर बांटा है
   फिर काहे मन घबराता है
   और काहे आँख छलकती है...

     फिर आज मेरे मन की वीणा......