Sunday 17 June 2012

फ़ादर्स डे पर…


बाबा !
आपके जाने से देहरी आंगन चौबारे
सब कितने खाली खाली हैं
आपकी दुलारी
शब्दों में नहीं बता सकती 
आपका घर
आपके सपनों का छोटा सा, सुंदर सा घर
कितना सूना है अब
लफ़्जों में नहीं सुना सकती…

आज फ़ादर्स डे पर
जी में आया देख आऊं
आपके लगाए उपवन को
वो क्यारियां
हरे हरे पत्तों से लहलहाई
फूलों से लदी
आपकी याद दिलाती है…

वह जो छोटा सा शिवालय है
उसके आस पास
हरदम
दिख जाते हैं आप मुझे
श्रमदान किया था आपने
मजदूरों के साथ मिलकर दिन रात
काम किया था उसमे
चप्पे चप्पे में एहसास बसा
है आपकी मौजूदगी का...

तुलसी चौरे में
आपकी रोपी तुलसी
अब भी है मंजरियों से भरी
उसे माथा टेककर लगता है जैसे
आशीर्वाद दिया हो आपने…

घर की क्या बात बताऊं
द्वार पर बेली की अनगिन कलियों से
भरा पौधा
आपकी याद दिलाता है…
बरामदे में रखी कुर्सी
खाली पडी जैसे आपकी राह देख रही हो....

आंगन में गुटर गूं करते कबूतर
गौशाले में बंधी गइया
सब सूनी निगाहों से
कुछ ढूंढते से लगते हैं

सभी को इन्तजार है बाबा
आपके आने का
कौन समझाए इन्हें
आप हैं तो इन सबके साथ ही
पर दिख नहीं सकते
अब कभी

ख्याल तो रख सकते हैं सबका
पर सर पर हाथ 
नहीं फ़िरा सकते
अब कभी……

मैं 
आपकी दुलारी
भरे नयन निहार लेती हूं
आपका कमरा
आपकी किताबें
आपके सहेजे संभाले हर छोटे बडे सामानों को
वो जूट का बना हाथी
आपने बनाया था
अपने नवासे के खेलने को
वो खजूर के पत्तों का पंखा
अपने हाथों से बनाकर झला करते थे
मेरी नन्ही सी बेटी को

सब कुछ छूती हूं
अपने हाथों से 
और महसूस होता है
आपकी हथेलियों का स्पर्श
नरम, स्नेहिल, ममता भरा

सरसरी निगाह समूचे कमरे पर
डालकर लौटती हूं
तब ठहर जाती है निगाह मेरी
ताजे फूलों के हार पहने
आपकी तस्वीर पर
बाबा…
मुस्कुराते रहने की आदत आपकी गई नहीं

कैसे धीमे धीमे मुस्कुरा रहे
तस्वीर में भी
जैसे दुहरा रहे हों वही बात
अक्सर कहा करते थे जो मुझसे
कि तुम्हारी कविता में
जो मायने है जीवन का
वही सत्य है एकमात्र
बाकी सब मिथ्या....

और मैं नकार रही होऊं
अपनी ही लिखी बात को
कि जीवन परिवर्तन का नाम है
जैसे पेड पुराने पत्तों का आवरण उतार कर
नए धारण करता है
वैसे ही बुढापा उतारता है पुराने वसन
और नया रूप धरकर आता है
बचपन
कहीं कुछ नहीं खोता
चलता रहता है परिवर्तन का यह क्रम…

सच ,कितना कठिन है
इस सत्य को जानकर भी
आत्मसात करना…

बाबा !
मेरे रगों में रचे बसे हैं
आपके आदर्श 
आपके अच्छे विचार
कामना करती हूं और प्रार्थना भी 
कि
हर जन्म में आप ही बनें
पिता मेरे
और मैं आपकी दुहिता……।

Tuesday 12 June 2012

मुट्ठी में कुछ लम्हे हैं


       (1)
कहते हैं चलता रहता है
वक्त का पहिया
अनवरत
कभी नहीं रुकता
कहीं नहीं रुकता
गति भी रहती है एक समान
हरदम......
फिर क्या होता है कि
कभी कभी वक्त काटे नहीं कटता
बिताये नहीं बीतता
ठहर सा जाता है

और कभी कभी पंख लगाकर
यूँ उड़ जाता है जैसे
जल्दी पड़ी हो कहीं जाने की
घड़ी की टिक टिक और
दिल की धड़कन माप नहीं पाती
उसकी गति
जब चाल बदल देता है वक्त
थाह नहीं पाता
अपना मन भी
वक्त के मिजाज को

जन्म के समय हम बंद किये
आते हैं मुट्ठी
उनमें छुपाए दिन महीने साल
अपनी उम्र के...
और गुजार कर अपने हिस्से की आयु
खुली मुट्ठी लिए लौटते हैं
उस लोक को...

      (2)

मेरी मुट्ठी में
कैद हैं कुछ खुशनुमा लम्हे
तसबीह के दानों की तरह
फेरती हूँ ख्वाबों खयालों में
हरदम
और जीती हूँ
उन्हीं पलों को
बार बार....
वक्त तब बिल्कुल थमा होता है
एक जरा नहीं खिसकता
और ऐसे बढ जाती है
मेरे उम्र की सीमा
जीने की अदम्य लालसा के साथ
       (3)
वह लम्हा नन्हा सा
जब अमलतास के तने को
घेरे अपनी बाहों में
खड़ी थी मैं बिसराए सुध बुध
और तल्लीन अपनी धुन में
गुनगुनाते हुए कुछ
तुम चले आए थे बिल्कुल पास मेरे
और अचानक टकरा गई थी
निगाह .
वह क्या था जो कौंध गया था
इस पार से उस पार
भीतर कहीं...
झट से मैंने बाँध ली मुट्ठी
और रह गया वह लम्हा
मेरा होकर....
  
    (4)
फिर उस दिन
बारिश की बूँदों में सराबोर
खोल नहीं पा रही थी मैं
पलकें
और चू रही थी
बूँदें मेरे बालों से
तुमने उन्हें अपनी अँजुली में
जमा किया
न जाने क्या सोचकर
तपाक से मैंने उस जलभरी
अँजुली को उलट दिया
तुम्हारे ही माथे पर
यह कहकर कि
चढा रही जल अपने शिव जी पर
और मंत्रमुग्ध से तुम
इतना ही कहा तुमने
शक्ति हो तुम ,आरध्या मेरी
अधूरा हूँ तुम्हारे बगैर
रहना मेरे साथ मेरी होकर
कि पूरा हो सके तुम्हारा शिव
आकार मिल सके उसे
जो है
अभी निर्मोही निराकार ...

       (5)
और उस पल
जब तुम्हें सोया जान
गहरी नींद में खोया जान
मैंने हौले से फिरा दी थी
उंगलियां बालों में
लेटे हुए तुम
चुपचाप पड़े रहे आँखें मूंदे
पर जैसे ही मुडने को हुई मैं
तुमने हाथ बढा कर थाम ली
मेरी कलाई को.
बंध गई मैं तेरे
प्रेम पाश में
जा नहीं पाई
चली आई तुम्हारे साथ साथ
और वो लम्हा रह गया
मेरी मुट्ठी में
सदा सर्वदा के लिए
    (6)

ऐसे कितने ही पल
जो हमने साथ गुजारे
सफर में हमसफर बन
कदम दर कदम
हमकदम बन...
प्रकृति की खूबसूरत
वादियों में ,
सुबह की छिटकती लाली
और सांझ की गहराती
सिन्दूरी आभा में
खोए खोए से
बंद हैं मेरी छोटी सी मुट्ठी में
खोलकर मुट्ठी जब जब भी
देखती हूँ
जी उठते हैं वही लम्हे
उन्हीं एहसासात के साथ
और ठहर जाता है
वक्त का वह लम्हा
मेरा हाथ थाम
मेरे साथ साथ..

    (7) .

     
इन लम्हों ने मुझे
क्या क्या नहीं सिखाया
तन्हाईयों को हँसकर
गुजारना...
और हमेशा हमेशा तुम्हें अपने
साथ महसूस करना

खूब सबेरे
जागने से भी पहले
सुनती हूं
किसी की आहट
मीठी और हल्की पुकार
जैसे तुमने आवाज दी हो
कानों से होकर आत्मा में
उतरती सी...
और फिर मधुर धुन सी
बजने लगती है
भीतर कहीं
चलते चलते अचानक
रुकती हूं
पलटकर देखती हूँ
कि आ रहे हो तुम ही
मेरे पीछे पीछे
यह नशा यह दीवानापन
मुट्ठी में सुगबुगाते
लम्हों का ही तो असर है
जिन्हें जीती हूँ बार बार
और जिउँगी उम्र भर..।. 

Sunday 10 June 2012

चलो न


चलो न
आज की रात
सितारों का जश्न देखें

सुना है रात जब गहरा जाती है
धरती अपनी धुरी पर
एक चक्कर पूरे करने ही वाली होती है
सितारों भरा आकाश
उडेल देता है अपनी जगमगाहट
झील के पानी में
बिखेर देता है सब सितारों को
धीरे से……
उनींदी कुमुदिनियां
जल कुंभियां
और चमचमाता चांद भी
शामिल हो जाता है
जश्न में…
जल क्रीडा करते हैं सभी
स्वच्छ जल में नहाकर
सितारे
और भी झिलमिल हो उठते हैं

जैसे
निधि वन की
तुलसी का हर पौधा
रात के गहराते ही
गोपियों की काया में तब्दील हो जाता है
और प्रेम का अजर अमर इतिहास
दुहराता है
सुना है हर गोपी के साथ कन्हैया
रास रचाता है....

चलो न !
समय की धुन पर अनवरत गूंजती
प्रेम की स्वर लहरियों में
पल दो पल को अपना सुध बुध
भूल जाएं
बिसरा कर दुनिया और दुनियादारी
की रस्में सभी
आत्मा के सुख में तनिक खो जाएं……

नन्हा बांसुरी वाला


रविवार का दिन
सुबह का वक्त
सब तरफ़ सुकून का वातावरण
बच्चों को स्कूल ले जाने वाले
वैन की लगातार आती आवाजें
आज बंद हैं

दफ़्तर जाने वालों की
गाडियों के बेतरतीब हौर्न
शोर नहीं मचा रहे
साइकिल लेकर ट्यूशन जाने वाले
किशोर किशोरियों की आवाजाही
भी नहीं है आज

कोई दस ग्यारह साल का नन्हा सा बालक
एक हाथ से
कंधे पर खिलौनों से लदा
डगरा उठाए
दूसरे से बांसुरी बजाता
मोहल्ले से गुजर रहा
क्या क्या नहीं है उसके डगरे में
रंग बिरंगे बैलून
छोटी छोटी बांसुरी
प्लास्टिक की घडियां,झुनझुना
दूरबीन, चश्मा
एक पूरी दुकान ही तो है
उसके कंधे पर

अजब कशिश है
उसकी बांसुरी की आवाज में
तन्मय होकर बजा रहा
दुनिया के राग द्वेश छल कपट से
बेखबर…
समय ने सिखाया है उसे
मधुर मधुर बांसुरी बजाना
आवश्यकताओं ने भर दी है
उसकी नन्ही सी बांसुरी में
इतनी इतनी मिठास…

मैंने आवाज लगाई तो
ठहर गया,
कंधे से उतारकर डगरा नीचे रखा और
आशा भरी निगाहों से देखने लगा
क्या दूं –?

उसने बताया
उसकी मां चूडियां बेचती है
यह भी ,कि
मेरे हाथों में जो चूडी है
ऐसी भी हैं उसकी मां के टोकरे में
मोतियों वाली…

दूर तक जाते हुए देखती हूं उसे
हवा के कैनवास पर
सुरों की कूची चलाता
नन्हा बांसुरी वाला
अनगिन चित्र खींचता जा रहा

देर तक निहारती हूं
धूमिल धूमिल से चित्र
सरसों के दाने भरे बैलून से
मां की गाल पर झन झन बजाता हुआ
एक गोद का बालक…

पिता की उंगली थामे चलता हुआ
दूसरे हाथ में बैलून की डोर थामे
सजग सा कोई बालक…

इन झूठ मूठ की घडियों,चश्मों
दूरबीनों की जिद्द करता हुआ
अबोध सा बालक…

कोई नहीं जानता
आज के ये नन्हे
समय के पन्नों पर कौन सा चित्र
अंकित करने वाले हैं
कौन सी कहानी लिखने वाले हैं
जो भी हो
आज दिन भर के लिए
जरूरत भर मिठास
इस नन्हे बांसुरी वाले ने
भर दी है मेरे मन में…॥